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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समासादि-वृत्त्यर्थ इस कारण, जिस प्रकार पदों की पारस्परिक अपेक्षा से अर्थ की अभिव्यक्ति होती है उसी प्रकार, 'राजपुरुष:' इस समस्त प्रयोग में भी अवयवभूत पदों की पारस्परिक अपेक्षा के आधार पर ही अर्थ की अभिव्यक्ति हो जायगी । ग्रतः ये व्यपेक्षावादी विद्वान् समास आदि के प्रयोगों में, समुदाय की दृष्टि से विशिष्ट शक्ति की कल्पना न करके, यह मानते हैं। कि अवयवों की अपनी-अपनी शक्ति से ही विशिष्ट अर्थ का बोध हो जाता है। द्र० "व्यपेक्षावादिनस्तु परस्पराकांक्षारूपा व्यपेक्षैवात्र सामर्थ्य न तु एकार्थीभावः " ( लघु मंजुपा पृ० १४११) । उदाहरण के लिये 'राजपुरुष:' इस प्रयोग में 'राजा' तथा 'पुरुष' इन दोनों पदों के अपने-अपने अवयवार्थों के उपस्थित हो जाने पर, 'ग्राकांक्षा' आदि के कारण 'स्व-स्वाभि भाव' रूप सम्बन्ध के द्वारा दोनों का पारस्पारिक ग्रन्वय होने से, 'राज - विशिष्ट पुरुष' इस अर्थ का बोध हो जाता है। इस 'व्यपेक्षा' पक्ष की दृष्टि से " समर्थः पद-विधिः" के 'समर्थ' शब्द का अभिप्राय माना जाता है - 'सम्बद्धार्थ' होना प्रर्थात् समास-युक्त पद के अवयवों के अर्थों का परस्पर सम्बद्ध होना। द्र० - "यदा व्यपेक्षा सामर्थ्यं तदा एवं विग्रहः करिष्यते - "सम्प्र ेक्षितार्थः समर्थः', 'सम्बद्धार्थः समर्थः ' इति ( महा० २.२.१. पृ० ३८ ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भेदे सति निरादीनां क्रान्ताद्यर्थेष्वसंभवः । प्राग् वृत्त 'जतिवाचित्वं न च गौरखरादिषु ॥ श्रतएव भाष्ये भाष्याशयः --- 'व्यपेक्षा' पक्ष में 'धवखदिरौ' इत्यादि उपर्युक्त अनेक प्रयोगों में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इन अवयवों के अर्थ से अतिरिक्त जो अर्थ प्रकट होते हैं उनका वाचक किसको माना जाय? जैसे- 'धवखदिरौ' इस प्रयोग में 'धव' तथा 'खदिर' का एक साथ होना' यह 'साहित्य' रूप अर्थ तथा 'निष्कौशाम्बि: ' में कौशाम्बी से बाहर जाना यहां 'निष्क्रमरण' रूप अर्थ की वाचकता किसमें मानी जाय ? बात यह है कि 'व्यपेक्षा' - वादियों के अनुसार 'धवश्च खदिरश्च' इस वाक्य के स्थान पर 'धव खदिरौ' तथा 'निष्क्रान्तः कौशाम्ब्या' के स्थान पर 'निष्कौशाम्बि: यह प्रयोग बना है । परन्तु वाक्य में विद्यमान 'च' तथा 'क्रान्त' शब्द समास में तो हैं नहीं इसलिये इन अर्थों की प्रतीति नहीं हो सकेगी। इसी कारण इन अर्थों की प्रतीति कराने के लिये "चार्थे द्वन्द्व : " ( पा० २.२.२६) जैसे सूत्र तथा " निर् प्रादयः क्रान्ताद्यर्थे पञ्चम्या: " ( महा० २.२.१८ ) जैसी अनेक वार्तिकों की रचना करनी पड़ेगी, जिन में पर्याप्त गौरव (विस्तार) होगा । द्र० ४०८ ( वाप० ३.१४.३६ तथा इस प्रसंग की अन्य कारिकायें) इसलिये इस प्रकार के अनेक प्रयोगों का उल्लेख यहां परमलघुमंजूषा में तथा वैयाकरणभूषणसार ( पृ० २७० ) में किया गया है। For Private and Personal Use Only परन्तु यहां यह विचारणीय है कि उपर्युक्त प्रयोगों में अवयवों की अपेक्षा जो अतिरिक्त अर्थ प्रकट होता है वह क्या 'एकार्थीभाव' - कृत है ?' 'एकार्थीभाव' का अभिप्राय यही तो है कि शब्द के अवयवभूत पद अपनी विभिन्नार्थता का परित्याग करके एक विशिष्ट अर्थ के साथ समास आदि वृत्तियों के प्रयोगों में उपस्थित होते हैं । पर यदि अवयवों में वह अर्थ है ही नहीं तो उन्हें 'एकार्थीभाव' के सिद्धान्त में कहां से प्रस्तुत किया जा सकेगा । संभवत: इसीलिए भाष्यकार पंतजलि ने ' व्यपेक्षा' पक्ष के दोषों का परिगणन कराते हुए, उदाहरण के रूप में, इन उपरिनिर्दिष्ट 'निष्क्रान्त' आदि से भिन्न
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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