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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लधु मंजूषा बनना 'अपादानता' है। वही (ग्राश्रयता) अवधि है और विभाग वास्तविक सम्बन्ध से युक्त होकर वास्तविक (ही हो यह आवश्यक) नहीं है । अपितु (कहीं कहीं), बुद्धि के द्वारा जिसमें सम्बन्ध की कल्पना की गयी हैं ऐसा, बुद्धिपरिकल्पित भी होता है क्योंकि 'माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य आढ्यतराः' (मथुरा वाले पटना वालों से अधिक धनी हैं) इत्यादि (प्रयोगों) में बुद्धि के द्वारा परिकल्पित विभाग के प्राश्रय में ही महाभाष्य में पञ्चमी विभक्ति की सिद्धि की गयी है । इसीलिये लोक में 'चैत्रान् मैत्रः सुन्दरः' (चैत्र से मैत्र सुन्दर है) इत्यादि प्रयोग होते हैं। 'अपादान कारक' की जो परिभाषा ऊपर दी गयी उसके उदाहरण के रूप में 'रामो गृहाद् आयाति' (राम घर से आता है) यह वाक्य देखा जा सकता है । यहाँ 'कर्ता' राम में 'समवाय' सम्बन्ध से आगमन क्रिया विद्यमान है। इस प्रागमन क्रिया से विभाग उत्पन्न होता है। साथ ही यह विभाग 'या' उपसर्ग से युक्त 'या' घातु का वाच्य अर्थ नहीं है। इस प्रकार के 'विभाग' का आश्रय यहाँ 'गृह' है इसलिये वह 'अपादान' कारक है। इस 'अपादान' को ही अवधि कहा जाता है । "विभागश्च न वास्तव-सम्बन्ध-पूर्वक:'...""प्रयोगः - इन पंक्तियों में यह स्पष्ट किया गया है कि यह आवश्यक नहीं है कि विभाग सर्वथा वास्तविक ही हो, अर्थात् पहले विभक्त होने वाले दो वस्तुओं का 'संयोग' सम्बन्ध हो और फिर उसके बाद उनका विभाग हो, ऐसे वास्तविक विभाग के ही आश्रय की 'अपादान' संज्ञा हो यह यहाँ अभिप्रेत नहीं है । कभी कभी ऐसा भी होता है कि केवल बुद्धि-परिकल्पित सम्बन्ध के आधार पर ही बौद्धिक विभाग की स्थिति मान ली जाती है। इसीलिये जब यह कहा जाता है-'माथुरा: पाटलिपुत्रकेभ्य पाढ्यतराः' तो यहाँ मथुरा-निवासियों का पटना वालों से जो विभाग अभीष्ट है वह बुद्धि-परिकल्पित ही है। इसलिये भाष्यकार पतंजलि ने इस प्रकार के उदाहरणों में विभाग को बौद्धिक मानकर 'अपादान' संज्ञा तथा उसके आधार पर पंचमी विभक्ति की सिद्धि की है (द्र०-महा० १.४.२४) । इस प्रकार बुद्धि-परिकल्पित विभाग के आधार पर भी 'अपादान' संज्ञा का व्यवहार होने के कारण ही 'चैत्रान् मैत्र: सुन्दरः' जैसे प्रयोग लोक में प्रचलित हैं । वहाँ चैत्र तथा मैत्र को पहले एक साथ वास्तविक रूप में सम्बद्ध किया जाता हो फिर उनका विभाग होता हो ऐसा नहीं होता। अपितु यहाँ बौद्धिक सम्बन्ध एवं बौद्धिक विभाग ही अभिप्रेत है। तुलना करो- "रूपं रसात् पृथक्' इत्यत्र बुद्धि-परिकल्पितम् अपादानत्वं द्रष्टव्यम्" (वभूसा० पृ० २०२) । ['अपादान' कारक की परिभाषा के 'प्रकृत-धात्ववाच्य' तथा 'तत्-तत्-कर्तृ' इन अंशों के प्रयोजन के विषय में विचार] 'वृक्षं त्यजति खगः' इत्यादाव् अपादानत्व-वारणाय 'प्रकृत-धात्ववाच्य' इति । 'परस्परस्मान् मेषाव अपसरतः' इत्यत्र अपादनत्वाय 'तत् तत्-कत' इति । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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