SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कारक - निरूपण ३५५ "कर्मणा यम् अभिप्रति०' इति संज्ञाविधानं तु 'दाशगोध्नो सम्प्रदाने' इत्यर्थकम् । 'तत्सम्प्रदानकं दानम्' इति बोधार्थं च । दानकर्मणो गवादेः सम्प्रदानार्थत्वेऽपि दानक्रियायास् तदर्थत्वाभावे चतुर्थ्यन्तार्थस्य दानक्रियान्वयानापत्तिर् इति तदन्वयार्थं च इति दिक्" | [ 'अपादान' कारक की परिभाषा ] 37 वस्तुतः बाद में रचित किसी वार्तिक के आधार पर पहले विरचित पाणिनि के किसी सूत्र की आवश्यकता अनावश्यकता का विचार ही अन्याय्य है । दूसरी बात यह है कि परम्परया 'सम्प्रदान' एक कारक विशेष का नाम है। अतः उसके लिये लक्षण बनाना सूत्रकार पाणिनि के लिये आवश्यक ही था । इसलिये पाणिनि ने " कर्मणा यम् ० ' सूत्र का प्रणयन किया। तीसरी बात यह है कि स्पष्टता तथा सुकरता की दृष्टि से भी पाणिनि का यह सूत्र यावश्यक है क्योंकि खींचतान कर "चतुर्थी विधाने ०" इस वार्तिक से काम चल जाने पर भी सामान्य पाठक के लिये यह निर्णय करना कठिन है कि कहाँ 'तादर्थ्य' है और कहाँ नहीं । चौथी बात यह है कि भाष्यकार ने " चतुर्थी विधाने तादर्थ्ये उपसंख्यानम् " इस वार्तिक के जो उदाहरण - 'यूपाय दारु', 'कुण्डलाय हिरण्यम्' इत्यादि-दिये हैं उन्हें देखने से पता लगता है कि इस वार्तिक के विषय प्रायः वे प्रयोग हैं जिनमें एक को प्रकृति तथा दूसरे को विकृति बताया गया है । जैसे- 'यूपाय दारु', 'कुण्डलाय हिरण्यम्' इत्यादि उदाहरणों में लकड़ी यूप की प्रकृति है तथा सोना कुण्डल की । पाँचवी बात यह है कि भाष्यकार ने उस वार्तिक का, "चतुर्थी तदर्थार्थ- बलि-हित-सुख-रक्षितैः " ( पा० २.१.३६ ) इस समास - विधायक सूत्र से 'तादर्थ्य' में चतुर्थी-विधान का ज्ञापक मान कर, खण्डन कर दिया है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. ३. तत्-तत्-कर्तृ-समवेत-तत्-तत्- क्रिया जन्य प्रकृत - धात्ववाच्य-विभागाश्रयत्वम् ग्रपादानत्वम् । तद् एव अवधित्वम् । विभागश्च न वास्तव-सम्बन्ध - पूर्वको वास्तव एव । किन्तु बुद्धि-परिकल्पित सम्बन्ध पूर्वको बुद्धि परिकल्पि - तोऽपि । 'माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्य श्राढ्यतराः ' इत्यादी बुद्धि- परिकल्पितापायाश्रयणेनैव' भाष्ये ( १.४.२४) पंचमी - साधनात् । श्रत एव 'चैत्रान् मंत्र: सुन्दरः' इत्यादिर् लोके प्रयोगः । उस उस कर्त्ता में 'समवाय' सम्बन्ध से विद्यमान रहने वाली उस उस क्रिया से उत्पन्न, उच्चरित धातु का जो वाच्य अर्थ नहीं है ऐसे, विभाग का श्राश्रय १. - For Private and Personal Use Only तुलना करो -- लम०, पृ० १२८५; विभागश्च न वास्तव सम्बन्ध पूर्वक एव किन्तु बुद्धि-कल्पित सम्बन्ध पूर्वकोऽपि । अत एव जुगुप्सापूर्व क-निवृत्ति लक्षकताम् आश्रित्य "जुगुप्सा-विराम" इत्यादि प्रत्याख्यानं भाष्योक्त' संगच्छते । ६० - पाटलिपुत्रेभ्यः । ह० में 'अपाय' के स्थान पर 'अपादान' ।
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy