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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेरह प्रदीप टीका प्रस्तुत की। इस प्रदीप टीका में वाक्यपदीय की कारिकाओं के प्रचुर उद्धरण तथा उनकी व्याख्यायें उपलब्ध हैं । संक्षिप्त होने पर भी व्याकरण दर्शन के अध्ययन की दृष्टि से इस टीका का विशेष महत्त्व है। कैय्यट भी काश्मीरी विद्वान् हैं । कैय्यट के कुछ समय बाद व्याकरण तथा साहित्य दोनों शास्त्रों के पारावारीण श्रीभोज (६७५ ई०) ने अपने ग्रन्थ शृगारप्रकाश में व्याकरणदर्शन-सम्बन्धी विशाल सामग्री को संकलित किया। वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड की लगभग दो सौ कारिकायें, उनकी भर्तृहरि-कृत स्वोपज्ञ वृत्ति तथा महाभाष्यदीपिका के पर्याप्त उद्धाहरण इस ग्रन्थ में द्रष्टव्य हैं। यह दूसरी बात है कि भर्तृहरि के प्रतिभादर्शन से वे सहमत नहीं हैं साथ ही शब्द-ब्रह्म तथा स्फोट के सम्बन्ध में भी इनका प्रतिपादन भर्तृहरि से भिन्न है। ११वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी के मध्य अनेक वैयाकरण विद्वान् हुए। इनमें पुरुषोत्तमदेव, सायणाचार्य, शेष श्रीकृष्ण तथा भट्टोजि दीक्षित प्रमुख हैं । पुरुषोतमदेव (१२वीं शताब्दी) का कारक चक्र, प्रसिद्ध वेदभाष्कार सायणाचार्य (१४वी शताब्दी) के सर्वदर्शनसंग्रह का व्याकरणदर्शन-सम्बन्धी अंश, शेषश्रीकृष्ण का शब्दाभरण, स्फोटतत्त्वनिरूपण, भट्टोजि दीक्षित (१६०० ई०) का शब्दकौस्तुभ, वैयाकरणसिद्धान्तकारिका, आदि में व्याकरणदर्शन के सिद्धान्तों का विवरण तथा विवेचन मिलता है। १७वीं से १८वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी विविध वैयाकरणों ने, जिनमें अनेक न्यायशास्त्र के भी मर्मज्ञ विद्वान् थे, अपनी व्याकरण-दर्शन-सम्बन्धी कृतियों से इस क्षेत्र को अलंकृत किया। इन विद्वानों में कौण्डभट्ट, नागेशभट्ट, जगदीश भट्टाचार्य, कृष्णमित्र, भरतमिश्र का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कोण्डभट्ट ने, भट्टोजि दीक्षित की व्याकरणदर्शन-सम्बन्धी कारिकाओं को आधार बना कर, वैयाकरणभूषण नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ में अन्य दार्शनिकों के द्वारा, व्याकरण-दर्शन के अनेक सिद्धान्तों के सम्बन्ध में, किये गये आक्षेपों का सयुक्तिक निराकरण करके वैयाकरण-सिद्धान्तों का पोषण, प्रतिपादन एवं समर्थन किया गया है। इस ग्रन्थ का लघु रूप भी वैयाकरणभूषणसार के नाम से कौण्डभट्ट ने ही प्रस्तुत किया। नागेशभट्ट की कृति आदि के सम्बन्ध में आगे के पृष्ठों में विचार किया जायगा । जगदीश भट्टाचार्य की शब्दशक्तिप्रकाशिका, गिरिधर भट्टाचार्य का विभक्त्यर्थनिर्णय, गोकुलनाथ का पदवाक्य रत्नाकर, पूर्णतः व्याकरण-दर्शन से सम्बद्ध न होते हुए भी, इस दर्शन के अध्ययन एवं शब्दों के विश्लेषण में पर्याप्त सहायक है । इसके अतिरिक्त भरतमिश्र का स्फोटवाद, कृष्णमित्र का वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थनिर्णय तथा वृत्तिदीपिका, श्रीकृष्णभट्ट की स्फोटचन्द्रिका आदि अन्य ग्रन्थ भी इस काल की संस्कृतव्याकरण-दर्शन को विशिष्ट देन हैं। __ व्याकरण दर्शन के क्षेत्र में कार्य करने वाले तथा अपनी विशिष्ट कृतियों-- ग्रन्थों एवं शोधपत्रों आदि के द्वारा इस दर्शन-सम्बन्धी मनन, चिन्तन एवं अनुसन्धान की दिशा को परिष्कृत, परिमार्जित एवं आलोकित करने वाले आधुनिक विद्वानों में श्री प्रभातचन्द्र चक्रवर्ती, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, डॉ० गौरीनाथ शास्त्री, प्रो० के० एस० अय्यर, पं० रघुनाथ शर्मा, डॉ. रामसुरेश त्रिपाठी आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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