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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय २७३ ['ज्ञा' प्रावि धातुओं के विषय में विचार] व्यापाराबोधक-ज्ञाधात्वादिसमभिव्याहृत - ग्राख्यातजन्यवर्तमानत्व-प्रकारक-बोधे तु तादृशधातुजन्योपस्थितिर्हेतुः । कार्यताकार गणतावच्छेदिका च प्रत्यासत्त्या विषयता एवेति नातिप्रसङगः । ‘जानाति', 'इच्छति', 'यतते' इत्यादौ वर्तमानत्वाश्रयज्ञानाश्रयत्वादिबोधस्यैव अनुभाविकत्वात् । 'ज्ञा' आदि धातुओं के (नियत) समीपवर्ती तथा (पुरुषनिष्ट 'यत्न' रूप) 'व्यापार' का बोध न कराने वाले 'लकार' से उत्पन्न ज्ञान में, जिसमें 'वर्तमानता' विशेषरण है, उस प्रकार के अर्थ वाले धातु से उत्पन्न अर्थ कारण होता है। ममीप होने से कायंता तथा कारणता का अवच्छेदक सम्बन्ध 'विषयता' ही है। इसलिये काल में प्रतिव्याप्ति (रूप दोष) नहीं होगा क्योंकि 'जानाति' (जानता है), 'इच्छति' (इच्छा करता है) तथा 'यतते' (प्रयत्न करता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'वर्तमानत्व है आश्रय जिसका ऐसे (वर्तमान-कालिक) ज्ञान की प्राश्रयता आदि (एवं 'वर्तमान' कालिक 'इच्छा' तथा 'प्रयत्न' की आश्रयता) का ज्ञान होता है - ऐसा (सब का) अनुभव है। 'जानाति', 'इच्छति' तथा 'यतते' इत्यादि प्रयोगों में 'ज्ञा', 'इच्छ' तथा 'यत्' धातुओं का क्रमशः 'ज्ञानमात्र', 'इच्छामात्र' तथा 'प्रयत्न मात्र' अर्थ है। इनमें ही 'फलत्व' तथा 'व्यापारत्व' का आरोप कर लिया जाता है । इसलिये ज्ञानरूप 'फल' का आश्रय होने के कारण 'विषयता' अथवा 'फलता' के 'अवच्छेदक' (आधारभूत) सम्बन्ध से 'घट' प्रादि ज्ञान के 'कर्म' हैं तथा इसी प्रकार ज्ञानरूप (पुरुषनिष्ठ) 'व्यापार' का आश्रय होने के कारण 'व्यापारता' के अवच्छेदक सम्बन्ध से घट आदि के ज्ञाता चैत्र आदि ज्ञान के 'कर्ता' हैं। ऐसे स्थलों में 'ग्राख्यात' ('लकार') की वाचकता 'शक्ति' 'कृति' (यत्न) में न मान कर 'फल' तथा 'व्यापार' के आश्रय में 'लक्षणा' मानी जाती है क्योंकि इन प्रयोगों में ज्ञानानुकूल 'कति' का बोध न होकर 'पाश्रय' का बोध होता है। इस प्रकार इन बातुओं में प्रयुक्त 'पाख्यात' (लकार) “कृति' रूप 'व्यापार' के बोधक नहीं हैं । परन्तु 'पाख्यात' के अर्थ 'पाश्रय' में यदि 'वर्तमान' काल का सम्बन्ध मान लिया गया तो केवल आश्रयभूत घट आदि के वर्तमान कालिक होने पर भी, अर्थात् घट ग्रादि-विषयक ज्ञान के न होने पर भी, 'जानाति' जैसे प्रयोग हो सकेंगे जो अभीष्ट नहीं हैं। इसलिये 'ज्ञा' आदि धातुओं के अर्थ 'ज्ञान' आदि में 'वर्तमान काल' का सम्बन्ध मानना चाहिये । यहाँ जिस 'कार्यकारणभाव' की कल्पना की गई उसका विश्लेषण यों १. ह०, वमि०-व्यापारबोधक । २. ह०-वर्तमानाश्रयत्वारोपज्ञानाश्रयत्वादि - For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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