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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा इन सूत्रों (पा० ३.४.६५-६८) में किया है। परन्तु यहाँ संक्षेप में केवल 'दीर्घत्वविकल्प' का ही संकेत किया गया। ['वर्तमान' प्रादि कालों का अन्वय 'कृति' (यत्न) अथवा 'व्यापार' में ही होता है] तत्र व्यापारादिबोधकेन लटा वर्तमानत्वं व्यापारादावेव बोध्यते । 'पचति' इत्यादितो वर्तमान-पाकानुकूलव्यापारवान् इति बोधात् । एवम् अन्यत्रापि । व्यापारबोधक-याख्यातजन्य-वर्तमानत्व-प्रकारक-बोधे आख्यात जन्यव्यापारोपस्थितेर्हेतुत्व-कल्पानात् नातिप्रसङगः । वहाँ ('लट्' लकार के प्रयोगों में) 'व्यापार' ('कृति' अथवा यत्न) आदि के बोधक 'लट्' (लकार) के द्वारा 'वर्तमान' काल का बोध ('लकार' के अर्थ) 'व्यापार' (कृति') में ही होता है क्योंकि ‘पचति' इत्यादि (प्रयोगों) से पाक (रूप 'फल') के जनक 'वर्तमान'-कालीन 'यत्न' (पुरुषनिष्ठ 'व्यापार') का बोध होता है । इसी प्रकार अन्य 'लकारों' में भी ('काल' का सम्बन्ध 'लकार' के अर्थ 'कृति' में ही) होता है। (धातु के अर्थ 'फल' या 'व्यापार' में 'वतंमोन' की) 'अतिव्याप्ति' इसलिये नहीं होती कि (पुरुषनिष्ठ) 'व्यापार' ('कति') के बोधक 'पाख्यात' ('लकार') का अर्थ 'वर्तमानता' है विशेषण जिसमें ऐसे ज्ञान में 'पाख्यात' ('लकार') से उत्पन्न होने वाली 'व्यापार' की उपस्थिति (कति' का ज्ञान) ही कारण मानी गयी है। यहां 'व्यापार' शब्द का प्रयोग 'लकार' के वाच्यार्थ 'कृति' अथवा पुरुष में होने वाले 'यत्न' (व्यापार) के लिये किया गया है क्योंकि अनेक स्थलों में 'यत्न' तथा 'व्यापार' को पर्याय माना गया है । परन्तु सुस्पष्ट ज्ञान के लिये यह उचित था कि नागेश यहां 'कृति' अथवा 'यत्न' शब्द का ही प्रयोग करते । 'व्यापार' शब्द के प्रयोग से पाठक को निश्चित ही पहले धातु के अर्थभूत 'व्यापार' का भ्रम होता है। यहां यह कहा गया है कि नैयायिकों के मत में वर्तमान आदि काल का अन्वय अथवा सम्बन्ध सदा ही, धातु के अर्थभूत 'व्यापार' में न होकर, 'लकार' के वाच्यार्थ 'कृति' ('यत्न' अथवा पुरुष-निष्ठ 'व्यापार') में ही होता है क्योंकि पाकानुकूल 'व्यापार' (चावल का उबलना आदि) के वर्तमान काल में होते हुए भी यदि वहां पुरुष का यत्न नहीं दिखाई देता तो 'पचति' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। तुलना करो :"पचतीत्यादौ कृत्यादिरूप-व्यापार-बोधक-प्रत्ययोपस्थाप्य-कालः तादृश-व्यापार एव अन्वेति न तु क्रियायाम् । यदा पुरुषो व्यापारशून्य: तदधीन-अग्निसंयोगादिरूपः पच्यादेः अर्थो विद्यते तदा 'अयं न पचति' इति व्यवहारात्" (व्युत्पत्तिवाद, पृ० ३३८) । १. निस०, काप्रशु०--प्रकार । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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