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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ निर्णय २३६ दूसरा उदाहरण : कौटिल्यं कचनिचये कर-चरण-अधरदलेषु रागस्ते । काठिन्यं कुचयुगले तरलत्वं नयनयोरर्वसति ॥ हे प्रिये ? तुम्हारे केवल केश-समूह में ही कुटिलता है (हृदय में कुटिलता अर्थात् कपटाचरण नहीं है)। हाथ, पैर तथा अोठों में राग (लाली) है (अन्य पुरुष विषयक राग अर्थात् अनुराग नहीं है) । दोनों स्तनों में ही कठोरता (दृढ़ता) है (हदय में कठोरता प्रर्थात निर्दयता नहीं है) । आँखों में ही तरलता (चंचलता) है (मन में तरलता अर्थात् अस्थिरता नहीं है)। भागवतेऽपि....."अन्येषु' इति शेषः-भागवत पुराण का यह श्लोक भी 'परिसंख्या' का ही एक अच्छा उदाहरण है। स्वतः मानव की प्रौत्सर्गिक इच्छा ही उसे विषय वासनाओं की और आकृष्ट करती है। इसलिये इन कार्यों में मनुष्य को प्रवृत्त करने के लिये किसी प्रकार के विधि' वाक्य की आवश्यकता नहीं है। इस रूप में सामान्यतया इन सब कार्यों में स्वत: प्रवृत्ति होने पर भी विशेष स्थितियों में इन का जो विधान किया गया उससे यह नियम बन जाता है कि इन विहित परिस्थितियों में ही इन मैथुन आदि का सेवन करना चाहिये अन्य समयों तथा परिस्थितियों में नहीं।। यहाँ जिन विशिष्ट परिस्थितियों की ओर संकेत किया गया है वे हैं केवल ऋतुकाल में अपनी धर्मप्रणीता पत्नी के साथ गमन, केवल यज्ञशेष के रूप में मांसभक्षण, केवल सौत्रामरिण याग में सुरापान, इत्यादि । किसी समय यज्ञों में मांस तथा सुरा की आहुति देने की परम्परा चल पड़ी थी तथा शास्त्रों में उसका विधान भी कर दिया गया था। आहुति देने से अवशिष्ट मांस तथा सुरा का भक्षण ऋत्विज् आदि करते थे। इस मांसभक्षण तथा सुरापान को पाप नहीं समझा जाता था । पर इनसे अतिरिक्त अवसरों पर मांसभक्षण तथा सुरापान को पाप समझा जाता था। भागवतकार ने 'विवाहयज्ञसुराग्रहै;' पद से यह बताया कि मैथुन, मांसभक्षण तथा मद्यपान जैसे कार्यों में सामान्यतया व्यक्ति की स्वत: प्रवृत्ति होती है उसके लिये विधान करने की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी शास्त्रों में विशेष अवसरों पर इन कार्यों को करने का जो विधान किया गया वह इस बात का नियामक है कि केवल उन्हीं विशिष्ट अवसरों पर वे वे कार्य करने है जिनका विधान शास्त्रकारो ने किया है। अन्य अवसरों पर इन कार्यों से व्यक्ति को निवृत्त करना हो इन विधानों का प्रयोजन है। इस प्रकार के विधायक वाक्यों का पारिभाषिक नाम 'परिसंख्या' है। [प्रसंगत: 'विधि', 'नियम' तथा 'परिसंख्या' के लक्षण और शास्त्रीय उदाहरण] तदुक्तम् विधिरत्यन्तम् अप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति । तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसंख्येति गीयते ।। (तन्त्रवार्तिक १.२.३४) For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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