SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३८ वैयाकरण- सिद्धान्त - परम- लघु-मंजूषा इस तरह 'परिसख्या' के इन प्रयोगों में भी 'एव' के प्रयोग के बिना ही नियम की प्रतीति होती है जिससे स्वतः प्राप्त दूसरी 'विधि' का निषेध हो जाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रालङ्कारिका प्रपिगमयतीति :- जिस परिसंख्या' की चर्चा ऊपर की गई उसके अलंकृत प्रयोगों को साहित्यशास्त्र के प्राचार्यों (आलंकारिकों) ने 'परिसङ्ख्या' अलंकार का नाम दिया हैं। आचार्य मम्मट ने 'परिसंख्या' अलंकार की निम्न परिभाषा दी है : fife पुष्टम् प्रपृष्टं वा कथितं यत् प्रकल्पते । तादृग् श्रन्यव्यपोहाय परिसंङ्ख्या तु सा स्मृता ॥ इस परिभाषा को स्पष्ट करते हुए मम्मट ने लिखा है - " प्रमारणान्तरावगतम् ग्रपि वस्तु शब्देन प्रतिपादितं प्रयोजनान्तराभावात् सदृशवस्त्वन्तरव्यवच्छेदाय यत् पर्यवस्यति सा भवेत् परिसंख्या" । संभवतः मम्मट की इन पंक्तियों के भाव को ही नागेश ने यहाँ श्रालंकारिकों के नाम से उद्धत किया है । मम्मट की इन पंक्तियों का अभिप्राय यह है कि प्रमाणान्तर से ज्ञात वस्तु भी जब शब्द से कह दी जाती है तो, उस कथन का कोई और प्रयोजन न होने के कारण, वह कथन अपने सदृश दूसरी वस्तु का व्यावर्तन करता है । किमासेव्यं पुसां सविधमनवद्य' सरितः, किम् एकान्ते ध्येयं चरणयुगलं कौस्तुभभूतः । किमाराध्यं पुरणयं किमभिलषणीपं च करुणा, यदासक्त्या चेयं निरवधि विमुक्त्यै प्रभवति । ( काव्यप्रकाश १०.११६) संक्षेप में 'परिसंख्या' अलंकार की परिभाषा है कि 'पूछे जाने पर अथवा बिना पूछे ही यदि कोई ऐसी बात कही जाय जिससे तत्सदृश अन्य का व्यावर्तन अथवा निषेध हो जाय वहाँ 'परिसंख्या' अलंकार माना जाता है। यह कथन प्रश्न पूर्वक अथवा बिना प्रश्न के भी हो सकता है । इस रूप यह दो प्रकार का होता है । कहीं अन्य अर्थ का निषेध प्रतीयमान ( व्यङ्ग्य) होता है तथा कहीं वह वाच्यार्थ के रूप में ही होता है । इस रूप में 'परिसंख्या' के दो और प्रकार हो जाते हैं । इन चार प्रकार के परिसंख्या में से दो प्रकार के उदाहरण नीचे काव्य प्रकार से दिये जा रहे हैं जिन में अन्य अर्था निषेध प्रीतयमान होता है क्योंकि नागेश ने 'स्वतुल्यान्यस्य व्यवच्छेदं गमयति' कहकर संभवत: इन्हीं दो प्रकारों का निर्देश यहाँ किया है । पहला उदाहररण : For Private and Personal Use Only मानवों को किसका सेवन करना चाहिये ? गङ्गा नदी के उत्तम तट का ( ही सेवन करना चाहिये अन्य व्यसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिये ) । एकान्त में किसका ध्यान करना चाहिये ? विष्णु के चरण युगलों का ( ही ध्यान करना चहिये विषय वासना आदि का ध्यान नहीं करना चाहिये ) । किसका आराधन ( उपार्जन ) करना चाहिये ? पुण्य का (अर्जन करना चाहिये, पाप का अर्जन नहीं करना चाहिये) । किसकी अभिलाषा करनी चाहिये ? दया की ( अभिलाषा करनी चाहिये, हिंसा आदि की अभिलाषा नहीं करनी चाहिये) । इन सब के सेवन आदि से चित्त असीम आनन्द प्राप्ति में समर्थ होता है । यह प्रश्नपूर्विका 'परिसंख्या' का उदाहरण है ।
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy