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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८८ वैयाकरणसिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा 'कारक विभक्ति' ( द्वितीया) का 'लिखति' के साथ कोई सम्बन्ध न बन पाने के कारण 'वि' को 'नापने' की क्रिया का अनुमापक माना गया क्योंकि 'प्रादेश पर्यन्त भाग को नाप कर वहाँ चित्र बनाता है' यह 'प्रादेशं विलिखति' का अभिप्राय है । इन स्थलों में 'द्योतकता' के प्रथम अर्थ से कार्य नहीं चल सकता क्योंकि यहाँ 'नापना' अर्थ 'लिख्' धातु क्रे वाच्य अर्थो में नहीं है । 'द्योतकता' के इस दूसरे अभिप्राय के आधार पर ही महाभाष्य के पस्पशाहिक के प्रथम वार्तिक - " अथ ग्रब्दानुशासनम्" की व्याख्या में कैयट ने 'अथ' इस 'निपात' शब्द को 'आरम्भ करना' रूप क्रिया का आक्षेप करने वाला बताया । द्व० -- "शब्दानुशासनस्य प्रारभ्यमाणता 'ग्रंथ' शब्दसन्निधानेन प्रतीयते" (महा० प्रदीप, भाग १, पृ०४) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्वचित्त कर्मप्रवचनीयानाम् ' द्योतकता' का तीसरा अभिप्राय है सम्बन्ध-विशेष का निश्चायक होना । जैसे 'जपम् अनु प्रावर्षत्' ( जप के बाद वर्षा हुई) । यहाँ 'नु' निपात 'जप' तथा 'वर्षण' क्रिया का पूर्वापर सम्बन्ध बताता है, अर्थात् पहले जप हुआ तथा उसके बाद बर्षा हुई इस बात का ज्ञान 'मनु' से होता है । ऊपर 'द्योतकता' के जिन दो अर्थों का निर्देश किया गया है उनसे यहाँ काम नहीं चल सकता । " कर्मप्रवचनीया: " ( पा० १.४.८३) सूत्र के अधिकार में पाणिनि ने जिन 'निपातों की 'कर्मप्रवचनीय' संज्ञा मानी है वे सभी इसी प्रकार के सम्बन्ध विशेष के निर्णायक हैं । 'कर्मप्रवचनीय' शब्द का अर्थ भी यही है । अन्वर्थकता की दृष्टि से ही इतनी बड़ी संज्ञा पाणिनि ने स्वीकार की । इसी तथ्य को बताते हुए पतंजलि ने कहा----" कर्म प्रोक्तवन्तः कर्मप्रवचनीयाः । के पुनः कर्म प्रोक्तवन्तः ? ये सम्प्रतिक्रियां न आहुः । के च सम्प्रतिक्रियां नाहुः ? ये अप्रयुज्यमानस्य क्रियाम् ग्राहुः " ( महा० १.४.८३) । यहाँ 'क्रियाम् आहु:' में विद्यमान 'क्रिया' का तात्पर्य है - ' क्रिया-विषयक सम्बन्ध' । द्र० - "क्रिया' शब्देन तदुपजनितसम्बधविशेष उपचाराद् उच्यते" प्रदीप टीका (१.४.८३) । भर्तृहरि ने भी इन 'कर्मप्रवचनीय' संज्ञक शब्दों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा : क्रियाया द्योतको नायं सम्बन्धस्य न वाचकः । नापि क्रियापदाक्षेपी सम्बन्धस्य तु भेदकः || वाप० २.१०६ इस प्रकार 'निपातों' के इन विभिन्न प्रयोगों की दृष्टि से उनकी 'द्योतकता' के तीन प्रकार माने गये । विशिष्टस्य न धातुत्वम् श्रापत्तेश्च :- यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है कि ‘निपातों' तथा 'उपसर्गों से युक्त धातुओं अर्थात् 'अनुभू', 'साक्षात्कृ' इत्यादि पूरे समुदायों, की ही धातु संज्ञा क्यों न मान ली जाय, जिससे 'निपातों' की 'द्योतकता' 'वाचकता' का सारा विवाद ही समाप्त हो जाय । इसके उत्तर में पहला हेतु यह दिया गया कि जिन धातुओं को 'उपसर्ग' के साथ धातुपाठ में स्थान दिया गया है वहां तो पूरे समुदाय को ही धातु माना जाता है परन्तु जिनका अभीष्ट ' उपसर्गों' के साथ, पाणिनि आदि आचार्यों द्वारा, प्रचवन नहीं किया गया वहाँ ' उपसर्गयुक्त समुदाय को धातुसंज्ञक कैसे मान लिया जाय ? यहां यह ध्यान For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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