SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा (पा० १.४.२३) इन सूत्रों से "अनभिहिते" (पा० २.३.१) सूत्र का सम्बन्ध स्थापित करके "अनभिहिते" सूत्र का अर्थ किया जाय-"अनुक्त-संख्या या अनुक्त-वचन वाले कारक में आगे निर्दिष्ट विभक्तियाँ होती हैं । इस प्रकार “कर्मणि द्वितीया" तथा "कर्तृक रणयोस्तृतीया" इन सूत्रों का क्रमशः अर्थ होगा-"जिसकी संख्या ('वचन') 'पाख्यात' द्वारा नहीं कही गयी है ऐसे 'कर्म' में द्वितीया विभक्ति हो" तथा "कर्ता' और 'करण' में तृतीया विभक्ति हो"। इस रूप में 'अभिहित' 'अनभिहित' की व्यवस्था में दोष नही पाता। कृत्तद्धित-समासः........."अप्रसिद्धत्वात्-वैयाकरण विद्वान् नैयायिकों की इस व्यवस्था से सहमत नहीं हैं क्योंकि यदि 'अनभिहितत्व' का सम्बन्ध, कारक से न करके, संख्या से कर दिया गया तो कात्यायन तथा पतंजलि के एक सिद्धान्त से विरोध उपस्थित होगा। महाभाष्य में यह निर्धारित किया गया है कि 'तिङ्', 'कृत', 'तद्धित' तथा 'समास' के द्वारा ही कथित होने पर कारक को 'अभिहित' माना जायगा तथा इनसे अन्य के द्वारा कथित होने पर उसे 'अभिहित' नहीं माना जायगा। अतः यदि 'अभिहित', 'अनभिहित' का सम्बन्ध संख्या से किया गया तो, 'तिङ्' का अर्थ संख्या भी माना गया है इस कारण, 'तिङ्' से तो संख्या का अभिधान हो जायगा, पर 'कृत्', 'तद्धित' तथा 'समास' का अर्थ संख्या भी है-यह बात कभी नहीं सुनी गयी। इसलिये अभिधान के इन हेतुओं से विरोध उपस्थित होगा। इस कारण नैयायिकों द्वारा उपरिनिष्टि "अनभिहिते" सूत्र का अर्थ स्वीकार्य नहीं है। यत्नोऽपि ..." लभ्यते-नैयायिक जो 'पाख्यात' का अर्थ 'कृति' मानते हैं उसे अनुचित ठहराने के लिये एक और हेतु यहाँ दिया जा रहा है । एक न्याय है-"वाक्य के किसी शब्द का वाच्यार्थ वही हो सकता है जो उस वाक्य के किसी अन्य शब्द का वाच्यार्थ न हो" (अनन्यलभ्यः शब्दार्थः)। इस दृष्टि से यहाँ यह विचारणीय है कि 'कृति' अथवा 'यत्न' (सामान्य 'व्यापार') धातु के द्वारा ही कह दिया जाता है-धातु के वाच्यार्थ में यह 'यत्न' भी समाविष्ट रहता है, क्योंकि नैयायिक भी 'व्यापार' तथा 'फल' दोनों को ही धातु का अर्थ मानते हैं । यहाँ 'व्यापार' शब्द से फलानुकूल (फलोत्पादक) 'व्यापार' ही अभिप्रेत है। इसलिये वह 'व्यापार' 'यत्न' के सिवा और क्या हो सकता है ? जैसे 'पच्' धातु विक्लित्तिरूप 'फल' के उत्पादक 'व्यापार' का ही तो बोध कराता है। इस लिये उन उन 'व्यापारों' के बोधक वे वे धातुएँ हैं-यह मानना चाहिये । और यह मान लेने पर कि 'यत्न' अर्थात् सामान्य 'व्यापार' धातु का ही अर्थ है तो फिर उसे ही 'माख्यात' अर्थात् लकारों का वाच्यार्थ मानने की क्या आवश्यकता? _ [नैयायिकों द्वारा स्वीकृत, 'पाख्यातार्थ में धात्वर्थ विशेषरण बनता है' इस, द्वितीय सिद्धान्त का निराकरण] 'पाख्यातार्थे धात्वर्थों विशेषणम्' इत्यस्य निराकरणम् अवशिष्यते । तथाहि "प्रकृत्यर्थ-प्रत्ययार्थयोः सहार्थत्वे For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy