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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्वान अथवा ज्ञानी ऋषि ने उस परम तत्त्व को देखा जो रहस्यमय (गुहा) है और जिस में सम्पूर्ण विश्व एकरूपता (अभिन्नता) को प्राप्त हो जाता है । इस विशिष्ट दृष्टि अथवा दर्शन की उपलब्धि के कारण ही ये ऋषि 'साक्षात्कृतधर्मा' कहलाये' तथा 'ऋषि' शब्द की व्युत्पत्ति 'दृशिर प्रेक्षणे' (दृश् , देखना) घातु से मानी गयी। वैदिक मंत्रों में जिस महाभाग्यवान्, अथवा अनन्त-शक्ति-सम्पन्न, सत्य स्वरूप अद्वितीय परमात्मा की बहुधा स्तुति हुई है उस मंत्रात्मा के दर्शन अथवा साक्षात्कार के बिना मंत्रों का दर्शन करना या स्फुरण होना असम्भव था । इसलिये मंत्रों के दर्शन अथवा मंत्रात्मा के दर्शन में कोई अन्तर नहीं मानना चाहिये । इन परमात्म-द्रष्टा ऋषियों की दिव्य चेतना में स्वतः संक्रान्त ऋचारों के समूह को ही 'वेद' कहा गया जो उस परम सत्ता का ही शाब्दिक प्रतिविम्ब था और साथ ही उस परम सत्ता की प्राप्ति का उपाय भी था। इस दिव्य दृष्टि अथवा दर्शन की अनुपम निधि को अपने मूल में अन्तहित करके ज्ञान की विविध रश्मियों को अपनी पद्धति से प्रतिपादित, प्रचारित एवं प्रसारित करने वाली स्मृतियों अथवा शास्त्रों को भी संस्कृत भाषा में 'दर्शन' कहा गया। इन सभी दर्शनों अथवा शास्त्रों का मूल आधार है वेद । वस्तुत: वेदवेत्ता प्राप्त विद्वानों ने वैदिक संकेतों के आधार पर अनेकविध शास्त्रों का प्रणयन किया। इस रूप में इन सभी दर्शनों और शास्त्रों तथा स्मृतियों के मूल में वही दिव्य दृष्टि है जिसने सम्पूर्ण सृष्टि के कण-कण में व्याप्त एक, अविनाशी एवं सचेतन तत्त्व का दर्शन किया था, साक्षात्कार किया था। इस मौलिक दृष्टि अथवा उससे अनुभूत आध्यात्मिक ज्ञान से रहित शास्त्रों को 'दर्शन' नाम नहीं दिया जा सकता। संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र अथवा शब्द-दर्शन-संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र भी एक दर्शन है-यह शब्द-दर्शन है। एक ऐसा दर्शन अथवा दृष्टि जिसकी मूलभूत मान्यता यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि की परम-कारण-भूता, अनादि, एवं परात्पर शक्ति शब्द-तत्त्वात्मक है। इसी १. निरुक्त १.२०; साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः । २. वही २.११; ऋषिर्दर्शनात् । स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः । ३. वही ७.४; माहाभाग्याद् देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते । द्र०-ऋग्वेद १.१६४.३६; ऋचोऽश्नरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति य इत्तद् विदुस्त इमे समासते ॥ तथा-गीता १५.१५; वेदश्च सर्बेरहमेव वेद्यः । द्र०-वाप० १.५; प्राप्त्युपायोऽनुकारश्च तस्य वेदो महर्षिभिः । 'दर्शन' शब्द के इस अभिप्राय की दष्टि से द्र०-वाप० १.३६; यो यस्य स्वमिव ज्ञानं दर्शनं नातिशङ्कते । स्थितं प्रत्यक्षपक्षे तं कथमन्यो निवर्तयेत् ।। ७. द्र०-वही १.७; स्मृतयो बहुरूपाश्च दृष्टादृष्टप्रयोजना:। तमेवाश्रित्य लिङ्गेभ्यो वेदविद्भिः प्रकल्पिता: ।। ८, द्र०-वही १.१ (पूर्वार्ध); अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्व यदक्षरम् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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