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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ वैयाकरण- सिद्धान्त- परम - लघु- मंजूषा क्योंकि एक न्याय है "अनन्यलभ्यः शब्दार्थः " ( शब्द का वाच्यार्थ वही होता है जो साथ के अन्य शब्द से ज्ञात न हो ) । इस न्याय के अनुसार 'तिङ' का वाच्यार्थ 'कर्ता' नहीं माना जा सकता क्योंकि उसका ज्ञान प्रथमा विभक्ति वाले पदों से ही हो जाता है । श्राख्यातार्थे धात्वर्थी विशेषरणम् - इस प्रसङ्ग में नैयायिक दूसरी बात यह मानते हैं कि आख्यातार्थ ( 'तिङ्' के अर्थ 'कृति') में धातु का अर्थ 'विशेषण' (प्रधान) होता है । इसका अभिप्राय यह है कि 'तिङ्' का अर्थ ( ' कृति') 'विशेष्य' अथवा प्रधान होता है तथा धातु का अर्थ ('फल' और 'व्यापार') 'विशेषण' अर्थात् ग्रप्रधान या गौण । ऐसा वे इसलिये मानते हैं कि “प्रकृत्यर्थ तथा प्रत्ययार्थ के एक साथ उपस्थित होने पर प्रकृत्यर्थ की अपेक्षा प्रत्ययार्थ की प्रधानता होती है" यह एक स्वीकृत न्याय है। यहां भी धातु 'प्रकृति' है तथा 'तिङ्' ' प्रत्यय' है । अतः उनके अर्थों में प्रत्ययार्थ ('तिङर्थ' अर्थात् 'कृति ' ) को प्रधान मानना ही चाहिये । 'आख्यात' शब्द का प्रयोग यद्यपि व्याकरण में धातु या धातु से बने क्रिया पदों के लिये ही हुआ है । निरुक्त ( १1१ ) में "नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च" तथा "भावप्रधानम् आख्यातम्" इत्यादि स्थलों में 'आख्यात' का अभिप्राय क्रिया पद है । इसी प्रकार "क्रियावाचकम् श्राख्यातम् " ( वाजसनेय प्रातिशाख्य ५1१ ) ( प्राख्यातम् आख्यान क्रियासातत्ये" (पाणिनीय गरणपाठ, गरणसूत्र २७२ ) इत्यादि सूत्रों में भी 'प्रख्यात ' का अभिप्राय क्रियापद ही है । " तन्नाम येनाभिदधाति सत्त्वं तद् प्राख्यातं येन भावं स धातुः " ऋक्प्रातिशाख्य (१२।५ ) के इस वाक्य में 'आख्यात' पद का प्रयोग केवल धातु के लिये किया गया है । नैयायिक विद्वान् 'तिङ्' प्रत्ययों को 'प्राख्यात' कहते हैं। यहां नागेश ने भी, नैयायिकों की दृष्टि से, 'तिङ्' के लिये 'आख्यात' शब्द का प्रयोग किया है । यहां जो 'प्राख्यातार्थ ( 'तिङ' के अर्थ 'कृति') की प्रधानता की बात कही गयी वह केवल कर्तृवाचक प्रत्ययों की दृष्टि से मानना चाहिये - कर्मवाचक प्रत्ययों की दृष्टि से नहीं । नैयायिक विद्वान् "लः कर्मरिण० " ( पा० ३.४.६९ ) सूत्र की वृत्ति के 'कर्म' तथा 'कर्तृ ' पदों को भाव- प्रधान मानते हुए उनका अर्थ क्रमशः 'कर्मत्व' तथा कर्तृत्व' करते हैं । इस कारण कर्तृवाच्य में 'लकार' का अर्थ 'कर्तृत्व' अर्थात् 'कृति' है तथा कर्मवाच्य में 'कर्मत्व' अर्थात् 'फल' । परन्तु यदि वे ऐसा मानते हैं तो, कर्मवाचक 'प्रत्यय' में 'लकार' का अर्थ 'फल' है इसलिए, धातु का अर्थ केवल 'व्यापार' मानना होगा । और तब “फल-व्यापारौ धात्वर्थः” ('फल' तथा 'व्यापार' दोनों धातु के अर्थ हैं) नैयायिकों की यह प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है । प्रथमान्तार्थे प्राख्यातार्थो विशेषणम् - तीसरी बात नैयायिक यहां यह मानते हैं कि प्रथमा विभक्त्यन्त पदों का जो 'कर्ता' आदि अर्थ होता है उसमें 'आख्यातार्थ ' 'विशेषण' (प्रधान) होता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथमान्त पदों के 'कर्ता' आदि अर्थ प्रधान होते हैं तथा 'आख्यात' का अर्थ ( 'कृति') 'कर्ता' आदि का 'विशेषण' होता है, अर्थात् 'कर्ता' की अपेक्षा 'कृति' अप्रधान या गौण होती है। ऐसा वे सम्भवतः, इसलिए मानते हैं कि सर्वत्र जो शाब्दबोध होता है उसमें धात्वर्थ या आख्यातार्थ की प्रधानता न होकर प्रथमान्तार्थ की ही प्रधानता पायी जाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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