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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ-निर्णय १६१ अनुकूलत्वम् अाश्रयत्वं च संसर्गः । तथा च 'चैत्रः पचति' इत्यादौ 'विक्तृत्त्यनुकूलव्यापारानुकूलकृतिमांश्चैत्रः' इति बोध: । 'रथो गच्छति' इत्यादौ रथस्य अचेतनत्वात् यत्नशून्यत्वेन व्यापारे पाश्रयत्वे वा पाख्यातस्य लक्षणा-- इत्याहुः । नैयायिक जो यह कहते हैं कि 'फल' तथा 'व्यापार' धातु के अर्थ हैं और 'लकार', लाघव के कारण, 'कृति' ('यत्न') के वाचक हैं न कि 'कर्ता' के' क्योंकि 'कर्ता' के कृतिमान् (यत्नवान्) होने से उस ('कर्ता') में 'लकारों' की वाचकता मानने में गौरव है तथा प्रथमा विभक्त्यन्त (देवदत्त आदि) पद के द्वारा ही 'कर्ता' का ज्ञान हो जाता है (इसलिये उन्हें 'लकारों' का वाच्य मानने की आवश्यकता भी नहीं है)। 'पाख्यात' ('तिङ' विभक्तियों) के अर्थ में धातु का अर्थ 'विशेषण (अप्रधान) होता है क्योंकि प्रकृत्यर्थ तथा प्रत्ययार्थ के एक साथ उपस्थित होने पर 'प्रत्यय' के अर्थ की प्रधानता मानी गयी है। (इसके अतिरिक्त) प्रथमा विभक्त्यन्त पदों के अर्थ में 'तिङ' (विभक्तियों) का अर्थ 'विशेषण' (अप्रधान) होता है । ('फल' तथा 'व्यापार' में और 'व्यापार' तथा 'कति' में) 'अनुकूलता' और (' तिर्थ' तथा 'प्रथमान्तार्थ' में) 'पाश्रयता' सम्बन्ध है। इसलिये 'चैत्रः पचति' (चैत्र पकाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में "विक्लित्ति' (गलना रूप 'फल') के अनुकूल (जो पाचन रूप) 'व्यापार' (उस) के अनुकूल (जो) 'कृति' (उस) का प्राश्रय चैत्र" यह बोध होता है । 'रथो गच्छति' (रथ जाता है) इत्यादि में, रथ के अचेतन होने के कारण 'यत्न'-शून्य होने से, 'व्यापार' अथवा 'आश्रयता' (अर्थ) में तिङ' की लक्षणा माननी चाहिये। लकाराणां कृतावेव शक्तिः-नैयायिक विद्वान् लकारों या उनके स्थान पर आये 'तिप्' आदि विभक्तियों का वाच्य अर्थ 'कृति' या 'यत्न' मानते हैं । वैयाकरण विद्वानों के समान वे इन विभक्तियों का अर्थ 'कर्ता' नहीं मानते। उनका कहना है कि 'कर्ता' अर्थ मानने में गौरव है क्योंकि 'कर्ता' को वाच्य मानने का अभिप्राय है 'कृतिमान्' को वाच्य मानना तथा 'कृतिमान्' में अनन्त 'कृतियों के समाविष्ट रहने से उन सब को 'लकारों' का वाच्य मानना होगा-अतः 'कर्ता' को वाच्य मानने में गौरव है । यद्यपि 'कृति' को वाच्य मानने पर भी अनन्त कृतियों को वाच्य मानना होगा परन्तु इस पक्ष में गौरव इसलिये नहीं है कि अनन्त कृतियों में कृतित्व 'जाति' एक है उसे ही वाच्य मान लेने से लाघव बना रहता है। लाघव के अतिरिक्त, 'लकारों का ‘कृति' अर्थ मानने में, दूसरा हेतु यह है कि वाक्य में विद्यमान प्रथमा विभक्त्यन्त देवदत्त आदि पदों से ही 'कर्ता' का बोध हो जाता है फिर उसे 'लकारों' का वाच्यार्थ मानने की क्या आवश्यकता? १. ह. में 'व्यापारे आश्रयत्वे वा' के स्थान पर 'व्यापारे' तथा वंमि० में 'आश्रये' पाठ मिलता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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