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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा अर्थ में, (कर्म) कारक - 'दौड़ना' की, 'ग्राकांक्षा' की 'उत्थापकता' है। 'दौड़ना' तो उस 'आकांक्षा' का विषय ही है । अन्तिम ( दूसरा प्रकार ) तो - 'पचति तण्डुलं देवदत्तः' (देवदत्त चावल पकाता है ) इत्यादि में है । क्रिया ( पकाना) तथा कारक ( कर्त्ता - देवदत्त और कर्म चावल) दोनों में पारस्परिक 'आकांक्षा' की 'उत्थापकता' भी है तथा 'विषयता' भी । इसीलिये ('आकांक्षा' के 'शाब्दबोध' में कारण होने से ) 'घटः कर्मत्वम्' (घड़ा, कर्म कारकता) तथा 'प्रनयनं कृतिः' (लाना कार्य) इन से, 'घटम् श्रनय' के समान, 'शाब्दबोध' नहीं होता। क्योंकि यहाँ (शब्दों में ) पारस्परिक 'आकांक्षा' का प्रभाव है । तथा 'घटम् श्रानय' यहां विभक्त यन्त ('घटम् ' ) तथा प्राख्यातान्त ( ' प्रनय') पद ही साकांक्ष हैं। परस्पर साकांक्ष होने के कारण (यहाँ अर्थबोध होता है) । यद् वा विषयत्वाच्च - ऊपर 'आकांक्षा' की जो परिभाषा दी गयी उसमें 'आकांक्षा' को पुरुष -निष्ठ मानते हुए यह कहा गया है कि 'समवाय' सम्बन्ध से 'आकांक्षा' का पदार्थ (शब्दार्थ) में आरोप कर जाता है । परन्तु आरोप के बिना भी 'आकांक्षा' को पदार्थ -निष्ठ सिद्ध करने के लिये, 'आकांक्षा' की एक अन्य परिभाषा प्रस्तुत करते हुए, नागेश ने यहाँ 'उत्थापकता' तथा 'विषयता' इन दो सम्बन्धों की चर्चा की है। अलग अलग तथा मिश्रित रूप से इन दोनों सम्बन्धों के आधार पर अर्थ में 'आकांक्षा' की स्थिति मानी जा सकती है । क्योंकि कहीं अर्थ 'आकांक्षा' का उत्थापक हुआ करता है, तो कहीं वह 'आकांक्षा' का विषय रहा करता है और कहीं कहीं पद के अर्थ में दोनों ही सम्बन्ध पाये जाते हैं - वह 'आकांक्षा' का उत्थापक भी होता है तथा विषय भी । इसलिये भले ही 'समवाय' 'सम्बन्ध से 'प्राकांक्षा' पुरुष में ही रहती हो, परन्तु इन दोनों प्रकार के संबन्धों के आधार पर 'आकांक्षा' को अर्थ में भी माना जा सकता है । यहां जो प्रथम उदाहरण दिया गया वहाँ केवल 'उत्थापकता' सम्बन्ध से अर्थ को साकांक्ष माना जाता है, अर्थात् 'पश्य मृगो घावति' इस वाक्य में जब केवल 'पश्य' कहा जायगा तो उसका, 'देखो' यह दर्शन रूप, अर्थ अपने 'कर्म', (कर्म कारक ), 'धावन' रूप अर्थ, की 'आकांक्षा' को उत्पन्न करेगा। क्योंकि 'पश्य' यह क्रियापद है तथा क्रियापद के लिये यह आवश्यक है कि उसका कोई न कोई 'कर्म' तथा 'कर्ता' आदि कारक हों । अतः यह स्वाभाविक है कि केवल 'पश्य' पद सुनने के उपरान्त यह 'आकांक्षा' होगी कि 'क्या देखो' ? इसलिये 'पश्य' पद में केवल 'आकांक्षा' की 'उत्थापकता' है । उसमें 'विषयता' नहीं है क्योंकि 'आकांक्षा' का विषय 'पश्य' नहीं हो सकता । साथ ही 'मृगो धावति' इस अंश में केवल 'आकांक्षा' की 'विषयता' ही है उसकी 'उत्थापकता' नहीं है । क्योंकि 'पश्य' पद के अनुच्चरित होने पर भी केवल 'मृगो घावति' इस अंश को मुनने के उपरान्त श्रोता में किसी प्रकार की 'आकांक्षा' नहीं उत्पन्न होती । परन्तु 'पश्य' पद को सुनने से जो 'आकांक्षा' उत्पन्न होती है उसका विषय 'मृगो घावति' श्रंश अवश्य है । द्वितीय उदाहरण - ' पचति तण्डुलं देवदत्तः' (देवदत्त चावल पकाता है) में 'पकाना' क्रिया तथा 'कर्ता' कारक ( देवदत्त) और 'कर्म' कारक ( चावल ) दोनों एक दूसरे की जिज्ञासा For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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