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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकांक्षादि-विचार ११५ के अभाव में जो यह ज्ञान होता है कि 'गो' पद अन्वय-बोध का जनक नहीं है यह ज्ञान ही 'आकांक्षा' को उत्पन्न करता है। 'आकांक्षा' के हेतुभूत इस ज्ञान का विषय है 'गो' पद का अर्थ, अर्थात् गो व्यक्ति । यहां यद्यपि 'गो' पद के अर्थ में निराकांक्ष अर्थबोध को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है फिर भी उसके लिये 'आकांक्षा 'का व्यवहार होता है। नैयायिकों के अनुसार वाक्य के जिस पद के बिना जिस पद का अन्वय नहीं बनता उस पद के साथ उस पद की 'पाकांक्षा' रहती है। द्र० ---"यत् पदम् ऋते यत् पदान्वय-बोधो न भवति तत्पदे तत्पदवत्ता (आकांक्षा)" । अथवा-"पदस्य पदान्तरप्रयुक्तान्वयाननुभावकत्वम् आकांक्षा” (न्यायकोश)। वेदान्त परिभाषा (आगमपरिच्छेद) में यह कहा गया है कि पदों के अर्थों में इस प्रकार की योग्यता, कि वे पारस्परिक जिज्ञासा के विषय बन सके, ही 'आकांक्षा' है । क्रिया को सुनने पर कारक तथा कारक को सुनने पर क्रिया में इस प्रकार की जिज्ञासा का विषय बनने की योग्यता होती है । द्र० –'पदार्थानां परस्पर-जिज्ञासा-विषयत्वयोग्यत्वम् माकांक्षा'। [एक दूसरे प्रकार से 'अकांक्षा' का विवेचन] यद् वा 'उत्थापकता'-'विषयता'-अन्यत रसम्बन्धेन, उभयसम्बन्धेन वा अर्थान्तरजिज्ञासा 'याकांक्षा'। पाद्यम्'पश्य मृगो धावति' इत्यत्र दर्शनार्थस्य कारकधावनाकांक्षोत्थापकत्वं धावनं तु तद् विषय एव । अन्त्यं तु''पचति तण्डुलं देवदत्तः' इत्यादौ क्रियाकोरकयो योरपि परस्परं तदुत्थापकत्वात् तद्विषयत्वाच्च । अत एव 'घट: कर्मत्वम् आनयनं कृतिः' इत्यतो 'घटम् प्रानय' इतिवत् नान्वयबोध: । 'याकांक्षा'-विरहात् । 'घटम् पानय' इति विभक्त यन्ताख्यातान्तयोरेव' साकांक्षत्वाच्च । अथवा 'उत्थापकता' या 'विषयता' इनमें से किसी एक सम्बन्ध से या इन दोनों सम्बन्धों से दूसरे अर्थ को जानने की इच्छा 'आकांक्षा' है। प्रथम (प्रकार)... 'पश्य मृगो धावति' (देखो हिरण दौड़ता है) यहाँ है। 'दर्शन' रूप १. ह. तथा वंमि० में 'तु' नहीं है । तुलना करोवैयाकारणमते विभक्ति-धातु-आख्यात-क्रिया-कारक-पदानां परस्परं विना परस्परस्य न स्वार्थान्वयानुभावकत्वम् (न्यायकोश)। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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