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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८४ www.kobatirth.org वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा को प्रतीति हो जायगी, जिन्हें व्यंग्य माना जाता है । 'अर्थशक्तिमूला' अथवा 'प्रार्थी व्यंजना' का अन्तर्भाव 'अनुमान' में हो जायगा । इस प्रकार 'व्यंजना' को अलग वृत्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । ( द्र० - नीलकण्ठी, खण्ड ४, पृ०३० ) । यहां नैयायिकों के इस मन्तंव्य में से नागेश ने केवल इतने अंश का ही खण्डन किया है कि 'लक्षणामूला व्यंजना' का 'लक्षणा' में ही अन्तर्भाव हो जाएगा । नागेश का कहना है कि नैयायिकों की यह बात मानने योग्य नहीं है । क्योंकि 'लक्षण' की तीनों शर्तें - 'मुख्यार्थ की बाधा', मुख्यार्थ से सम्बन्ध' तथा 'किसी विशेष प्रयोजन का प्रतिपादन ' - 'व्यंजना' में अनिवार्यतः रहा करती हो यह आवश्यक नहीं है । इसका प्रतिपादन इसी प्रकरण में ऊपर किया जा चुका है । तथा च आचार्य मम्मट ने भी काव्यप्रकाश में इस प्रसंग को उठाया है तथा 'गंगायां घोषः, का उदाहरण प्रस्तुत करके यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि व्यंजना का अन्तर्भाव 'लक्षणा' में नहीं हो सकता । 'गंगायां घोष:' इस प्रयोग में 'गंगा' शब्द के 'प्रवाह' रूप अर्थ के बाधित हो जाने पर लक्ष्य अर्थ 'तट' उपस्थित होता है । इसी तरह यदि 'तट' रूप अर्थ यदि बाधित हो जाय तभी वह 'शैत्यत्व' 'पावनत्व' आदि व्यंग्य अर्थों को लक्ष्य बना सकता है। यहां न तो 'तट' मुख्य अर्थ ही है और न ही उसकी बाधा है । 'लक्षणा के लिये 'मुख्यार्थ की बाधा' पहली आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त 'गंगा' शब्द के लक्ष्यार्थ 'तट' का शैत्यत्व पावनत्व आदि से व्यंग्य अर्थ, जिन्हें नैयायिक लक्ष्य बनाना चाहता है, कोई सम्बन्ध भी नहीं है । दूसरी आवश्यकता -' - 'मुख्यार्थ से सम्बद्ध होना' - भी यहां नहीं है । इसी तरह 'किसी विशेष प्रयोजन की प्रतीति कराना' यह तीसरी आवश्यकता भी यहां नहीं हैं। क्योंकि शैत्यत्व, पावनत्व आदि की प्रतीति, जो स्वयं ही प्रयोजन - विशेष हैं, और किस प्रयोजन को प्रस्तुत कर सकते हैं ? द्र० 'हेत्वभावान्न लक्षरणा' - मुख्यार्थबाधादित्रयं हेतुः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्यं न मुख्यं नाप्यत्र बाधो, योगः फलेन नो । न प्रयोजनम् एतस्मिन् न च शब्दः स्खलद्गतिः ॥ नानुमानं रसादीनां व्यङ्ग्यानां बोधनक्षमम् : श्राभासत्वेन हेतुनां स्मृतिर्न च रसादि-धीः ॥ ( काव्यप्रकाश, २.१६) नैयायिकों ने 'प्रार्थी व्यंजना' का जो 'अनुमान' में अन्तर्भाव करने का प्रयास किया है उसका सविस्तर खण्डन विश्वनाथ आदि ने अपनी पुस्तकों में किया है । द्र०- ( साहित्यदर्पण, ५.४ ) For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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