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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (3) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( प्रति०) पादान्ते = चरणान्तं । गुरुद्विमात्रम् | ज्ञेयं =बोध्यम् । संयोगे==संयुक्तवर्णे परतः = परे । =तथा । प्रा=पूर्वम् । चत्रि | ( भाषा) प्रत्येक चरण के अन्त का हस्व अक्षर विकल्प से गुरु माना जाता है, अर्थात् जहां गुरु बोलने से श्लोक की सुन्दरता आती हो, वहां गुरु और अन्यत्र लघु रहता है । इसी प्रकार अनुस्वार विसर्ग तथा संयुक्त वर्ण पर हो तो पहला ह्रस्व वर्ण गुरु होता है, एवं दीर्घ भी गुरु होता है ॥ ३ ॥ (गणविचार) छन्दो जिज्ञासुभिध्या भजसा, घरता मनौ । सर्वत्र गणा अष्टौ, गो गुरुलों लघुस्तथा ॥ ४ ॥ (अन्वयः) छन्दोजिज्ञासुभिः 'भजसाः यरताः मनो' ये अ गणाः सर्वत्र बोध्या:, तथा गः गुरु: ल: लघुः । ( टीका) छन्दोज्ञानमिच्छुभिः सर्वत्र भ-ज-स-य-र-त-मन- संज्ञका अष्टौ गया बोध्या:, तथा गः = गुरुसंज्ञकः, लःलघुसंज्ञको बोद्धव्य इत्यर्थः । ( प्रति०) प्रतिशब्दाः स्पष्टाः । ( भाषा) छन्द के जानने वालों को सर्वत्र भगण जगण सगण यगण रगण तगण मगण और नगा, ये आठ गण, तथा 'ग' से गुरु और 'ल' से लघु समझना चाहिये || ४ || For Private And Personal Use Only
SR No.020917
Book TitleVruttabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
PublisherShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1929
Total Pages63
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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