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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shr (अन्वयः) यत्र प्रत्यति आद्याश्चत्वारः षष्ठकः सप्तमश्च तथा श्रुतिपथललितौ द्वावन्त्यौ षोडशाऽऽद्यौ तदन्त्यौ वर्णाः लघुतां विजहति, रसिकजनमुद सप्तभिः सप्तभिः विश्रान्तिच दत्ता, म्रनेभ्यो पत्रिकेण इह धरायां स्फुटं विदिता असौ स्रग्धरा । (टीका) यस्यां प्रतिचरणमादितश्चत्वार: षष्ठः . सप्तमः तथा सुश्रवौ द्वावन्त्यो षोड़शाऽऽद्यौ चतुर्दश-पञ्चदशौ तदन्त्यौ= सप्तदशाष्टादशौ इत्येते वर्णा लघुतां त्यजन्ति अर्थाद्वो भवन्ति, तथा रसिकजनानामानन्दाय सप्तभिःसप्तभिर्वणविश्रान्तिश्च दत्ता, मगण-गण-भगणा-नगणेभ्यः परस्तात् त्रिभियगणैरस्यां पृथिव्यां स्फुट विदिताऽसौ स्रग्धरा अत्र प्रतिचरणम्-55ss/5silluss/ssss) इत्येवं स्वरवर्णन्यासः । (प्रति०) विजहति= त्यजन्ति । प्रत्यानिप्रतिचरणम् । तदन्त्यौ= षोडशान्त्यौ । रसिकजनमुदे रसिकजनानन्दाय । विदिता विज्ञाता । स्पष्टं शिष्टम् ॥ (भाषा) जिस के प्रति चरण में आदि के चार, छठा सातवाँ चौदहवाँ पन्द्री सत्रहवाँ अठारहवा और अन्त के दो अक्षर गुरु हों, तथा सातवे २ अक्षर पर विश्राम हो उस को स्रग्धरा छन्द कहते हैं । मगण रगण भगण नगण और तीन यगण से युक्त रहने के कारण इस के प्रत्येक चरण के स्वर 'चिह्न-(ऽऽऽऽ।ऽऽऽऽऽऽ) इस प्रकार हैं ॥ ४१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020917
Book TitleVruttabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
PublisherShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1929
Total Pages63
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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