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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (भाषा) आर्या के पहले दूसरे चरणों के बराबर यदि तीसरा और चौथा चरण भी हो जाय तो उसे गीति छन्द कहते हैं ॥६॥ उपगोति. आर्योत्तराईवस्या,-यस्यां पूर्वार्द्धमपि बद्धम् । तामुपगीति कविजन,-मानसहंसा:प्रभाषन्ते। (अन्वयः) यस्याम् आर्योत्तरार्द्धवत् पूर्वार्द्धमपि त्वद्धं स्यात्, कविजनमानसहंसाः ताम् उपगीति प्रभाषन्ते ।। (टीका) यस्यामार्यावृत्तरुत्तरार्द्धसदृशं पूर्वार्द्धमपि निरूपितं भवेत् अर्थात् प्रथमतृतीययोः पादयोर्दादश द्वादश मात्रा:, द्वितीयचतुर्थयोश्च पञ्चदश पञ्चदश मात्रा: स्युः कविकुलशिरोमणयस्ताम् उपगीति कथयन्ति ।। (प्रति०) बद्ध निरूपितम् । कविजनमानसहसा:-कविकुलशिरोमणयः । स्फुटमन्यत् । (भाषा) आर्या के तीसरे चौथे चरणों के समान पहला और दूसरा भी चरण हो तो उसे उपगीति छन्द कहते हैं । समाक्षर छन्दों के लक्षण नगस्वरूपिणी (प्रमाणिका) गुरु द्वितीय- षष्ठमष्टमं च यत्र ताम् । नगस्वरूपिणी परे,-ऽपरे प्रमाणिकां जगुः ॥११॥ १ द्वितीयं च तुर्थं च प चत्यषां समाहारद्वन्द्रनैकवचनम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020917
Book TitleVruttabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
PublisherShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1929
Total Pages63
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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