SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०० ) चार्यकेपास दीक्षालेके सब पूर्वगतश्रुतपढके श्री केशीगणधरके संतान देवगुप्तगणीकेपास प्रथमपूर्व का अर्थपढा.। द्वितीय सूत्रके शर्थपढनेमे विद्याग रुशांतहए तब इसको योग्यजानकेपदपर स्थापित किया। तब पहिले गुरुने गणी ऐसा और द्वितीय गुसने दमात्रमण ऐसा नामरखा उसदिनसे देव र्द्धिगणिदमाश्रमण इसनामसे प्रसिछहा तिस कालमे ५०० आचायमे मुख्य कलिकाल केय ली सब सिधांतकीबाचना देनेवाला यह देवर्द्धि गणीमात्रमण शत्रुजयगया जाके कपहीनाम यक्षका शराधनकरके प्रगट होनेपर कहा कि जिनशासनकी रदाकेलिए तुमाराशराधन मैंनेकि याहै, सोयहहै कि शाजकल बारहबरसका काल पठनके बाद श्रीस्कंदिलाचार्यने माधुरी सिहांतकी वाचनाकिया, तोनी कालस्वन्नावसे लोगोंकी बुद्धि हीन होनेसे सिछांत भूलजातेहै और भूल जायंगे, इसहेतु तुम्हारीसहायतासे पत्रोंपर लिखने का मे रामनहै, इससे जिनशासनकी बडीरताहोगी, मंद बुछीनी पुस्तकोंको देखके पढसकेंगे, देवतानेकहा बहुत सुंदरहै होय, तब देवताकी सहायतासे पत्र द्वारा सब शाचार्यसाधु एकछेहोवल्लभीपुरमे सिद्धांत सव पत्रोंपर लिखेगए, जो अंगोमेउपांगके आलावे प्रमाणभूत, जगेजगे विसंवाद, संख्याका वीपरीत पन अर जगेजगेपर माथुरीवाचना यहसब देख -- - - -
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy