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________________ ( १९३ .) ग५० गणाभियोग५१ बलानियोग ५२ देवाभि योग५३ कांतारवृत्ति५४ गुरुनिग्रह.५५ यहबबंडी शागारहैं, मूल५६ द्वार५७ प्रतिष्ठान५८ आधार ५९ नाजन६० निधी६१ यह कन्नावनाहैं, शस्ति जीव६२ वह नित्यहै६३ वह कर्मकर्ताह६४ किये कर्मको नोगताहै६५ उस्कानिर्वाणहै६६ उस्कैनि र्वाणका उपायहै ६७ हय स्थान हैं, इस प्रकार लक्षणभेदोंसे विठठ निर्मलसम्यक्त होताहै ॥ इनसनोंका अर्थ दृष्टांत सहित लिखतेहैं, पर मार्थरूप सात्विक जीवाजीवादि पदार्थामे आद रपूर्वक जानने के लिये अभ्यास १ परमार्थके जानने वाले प्राचार्यादिकोंका सेवन२ निजावोंका त्याग३ सौगतादि निंदितमतका त्याग यहचारहानहैं, अर्थात् यहसच्चहै ऐसा निश्चय करावनेवालेहैं इस लिये पहिले दूसरेका शाचरणकरना और तीसरे चौथेका त्यागकरना, नहीतो जैसा अमृत समान गंगाजलन्नी लवणसमुद्रके संसर्गसे तत्काल खारा होजाताहै, वैसेही सम्यग्दृष्टीनी कुसंगसे मिथ्या दृष्टी होजायगा, बोधका कारण धर्मशास्त्रके सुन नेकी इच्छा १ जैसा कोईसुखी चतुररागी तरुण पुरुष श्पनीस्त्रीसहित होके देवताओंका गानासु ननेकी इच्छाकरताहै, वैसेही सम्यक्तहोनेसे नव्यों को सिछांत सुननेकी इच्छा होती है। चारित्रादिधर्म मे प्रेम २ जैसा कोई जंगलसे निकल दरिद्रीभूखा
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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