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________________ ( १८० ) - - नापि साधुषु एकांतेनैव वत्सलत्वात् , नात समानः अनुजसमानः अत्यवरः प्रेमत्वात् न त्वविचारादौ, निष्ठरवचनादप्रीतेः तथाविध प्रयोजनेष्वत्यंतवत्सलत्वाच्चेति, मित्रसमानः सोपचारवचनादि विना प्रीतिदतेः तत्दिता वापद्यपेदिकत्वादिति, समानः साधारणः प तिरस्याः सपत्नी, यथासा सपत्न्या ईर्ष्यावशा दपराधान्वीक्ष्यते एवं यःसाधुषु दूषणदर्शनत त्परोनुपकारीच स सपत्नीसमानो निधीयते इसका अर्थ, विना कारण साधनोंमे अत्यंत प्रेम रखनेवाले श्रमणो पासक मातृपितृसमान १ साधुके विचार कर्ममे निष्ठर बोलनेवाले भर सविचार कर्ममे प्रेम करनेवाले भ्रातृसमान २ सा धुके मधुर भाषणसे प्रीति रखनेवाले अर विपति मे सहाय करनेवाले मित्रसमान ३ सौतिन जैसे ईर्षासे सौतके अपराधोंको देखती है ऐसेही सा धुओंके निवारण ईर्ष्यासे दूषण देखने मे तत्पर और अनुपकारी वह सपत्नीसमान होतेहैं ४ ऐ से एकसे एक निकृष्ट क्रमसे चार श्रमणोपासक है उनमे सपत्नीसमान तो अति निकृष्ट है, इस पाठके न्यायसे पूर्वोक्त केवल पाखंझी जाननेवाला श्रावक सपत्नी समान निंदनीय होता है, उसका देनानी निष्फलहै और वह निरयगामी होताहै। ५ यह जो पार्श्वस्थोंकों वंदनका निषेध लिखा -
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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