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________________ ( १७१ ). %3D को दोष कुबन्नी नहीं है, केवल पुण्यही उपार्जन होता है, बह पुण्य निर्वाणका कारण है ॥ ३५॥ कहीं जो थोडासा सारंन पणेसे कर्म बंधन कहा है सोतो गृहस्थोंको सदाही बना है, अर्थात् सा धुओंको आहारादि बनायके देनेही मे होता तो विचारणीय होता इसलिये पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक शुछ बुहीसे सिद्धांत का अर्थ विचारना चाहिये बँचाताणी करना अयुक्त है॥३६॥ बहुतसे गुणों की सिछिके लिये थोडासा दोषभी होय तो स्वी कार है, जैसे चतुर पुरुषों को जीनेके लिये सांप की डसी हुई अंगुली काट डालना अंगीकार हो ता है, इस्से आरंभ का शल्पदोष अधिक पुण्य संपादन से नष्ट होजाता है ॥३७॥ जो गृह अर परिग्रहके नोगमे आसक्त होके बहतसे त्रसजीवों की हिंसा जिसमे होय ऐसे खेतीबागबगीचा प्रमुख संसार संबधी खोटे कर्म अनेक करते हैं अर धर्म के अर्थ अर्थात् साधुलोगों के अर्थ रसोई करा वनेमे उन करानेवालों को पाप लगता है ऐसा वचन मुखसे बोलते दुष्ट लज्जित नहीं होते हैं ॥६८॥ इस प्रकारके सिद्धांत विरुछ बहुत दोषों से युक्त मूर्खाके वचनों को मूढ अर कृपण लोग सरदहते हैं अर सुखसे पापमे क्रीडा करते हैं १९ यदि दानदेना पापका कारण होता तो अनिंद नीय पाप रहित विद्याथों से युक्त सम्यक चारि -
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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