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________________ ( १७० ) सिवाय अर्थात् इस्से अधिक भर क्या पाप होगा (२८) अन्य किसी साधमीकों और विशेष करके निर्धनको धननिधीके समान अर मुनिको अति प्रिय बंधुके समान देखके जिस्के नेत्र और मुख उल्लसित अर विकसितहास्य करके मनोहर नही होते हैं उस मनुष्य से श्रीजिनभगवान दूर रहते हैं अर उनका वचन भी हृदय मे नही रहता है (२९) जो मनुष्य साधुलोगों को देखके विकासित विलोचन हो अर्थात् प्रफुल्लित नेत्र होय अर अ त्यंत आनंदित होंय वह देहधारी जीव सम्यग्द्रष्टि होंय (३०) जो साधीमे नक्ति करना वही जैन दर्शन का सम्यग्दर्शनका सार है, जीवित है भर प्रधान है ॥ ३१ ॥ जो पुरुष लोनी होके धर्मके काममे कपट करते हैं वह अपने को खूब ठगते हैं भर मूर्ख शिरोमणि हैं॥३२॥ हे लोगों! जब तक साधुके पात्रमे नही ररका अर्थात् नदिया जाय तब तक पहिलेही शाप अपनी इच्छापूर्वक कैसे सब बस्तु नोजन किया जाय ॥३३॥ तीर्थ, ज्ञान, दर्शन भर चारित्रके मूल साधु हैं अर सा धुओंका मूल आहारादिक है, उस शहारादिक का देनेवाला पुरुष तीर्थको धारण करता है अर तीर्थकी रक्षा करता है, तीर्थकी रक्षा करना सर्व पुण्योंमे श्रेष्ठ है॥ ३४॥ इस हेतु से शाहारादि वस्तु करके वा करायके यतीलोगों के देनेवालों -
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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