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________________ ( १६५ ). दातस्यगुवी युक्त्यायुक्तंजयमुनिरुपासाधयत्सा धुसिद्धैः ॥ ६१ ॥ ॥ शब इनकी नाषा लिखते हैं । साधु जंगम तीर्थ हैं अर्थात् शत्रंजयादि तीर्थ तो स्थिर हैं जमरूप हैं और साधु चलते हिलते तीर्थ है, और साधु श्रुतज्ञान हैं श्रुतज्ञानके देने वाले हैं, और साधु मूर्तिमान् देवता हैं निग्रहा नुग्रह समर्थ हैं इस्से , साधु से श्रेष्ट वस्तु जगतमे और कोई नही है, (१) पूर्वश्लोकमे साधुकों जं गम तीर्थ श्रुतज्ञान और मूर्तिमान् देवता कहा अब उनसे नी विशेष उपकारित्व साधुका दिख लाते हैं जैसे साधु लोग लोगों का बडा उपकार करते हैं, तैसें तीर्थ ज्ञान और देवताभी उपकार नही करसकते, कारण कि धर्मकार्य करनेमे प्रेरणा और अधर्म कार्यसे निवारण अर्थात् मना करने से तथा अर्थका साधन और अनर्थका बाधन करने से जैसा बझा उपकार साधु करते हैं वैसा कोई नही करता है (२) साधुसे ही सब धर्ममार्ग चलताहै साधु बिना सर्व धर्मकार्य लुप्त होजायगा (३) दर्शन ज्ञान और चारित्र यह तीनो साधु से जुदेनही अर्थात् तद्रूपही साधु हैं, और ज्ञान दर्शन चारित्र के सिवाय चौथा कोई पूज्य नही है तब कैसे साधुलोग पूजने योग्य न होंगे? (४) यदि कहे कि साधुतो पूज्य हैं परंतु केवल लिंग
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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