SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) इच्छा प्रगट की । उनमें से एक का नाम मि० वारन था । परधर्मी ईसाई धर्मानुयायी जैन धर्म की शिक्षा लेने के लिये तैयार होगये, यह क्या मि० गांधी की कर्तत्व शक्ति के लिये कम धन्यवाद की बात थी । आपने ऐसी शिक्षा देने की व्यवस्था की और एक शिक्षण वर्ग स्थापित कर दिया। इसका विजयी परिणाम निकलने के पहले ही शरीर की प्रकृति अनुकूल न रहने के कारण स्वदेश को लौटना पड़ा बम्बई आते ही बड़े सम्मान से आप को लोगों ने लिया । स्वर्ग वास स्वदेश के जैन समाजोन्नति के विचारों ने मित्र गांधी के हृदय में स्थान कर लिया था और इस क्षेत्र में उन्होंने कार्य भी प्रारंभ कर दिया था परन्तु यदि मनुष्य की इच्छा सेही इस संसार में सब सूत्र चलते तो काल का महत्व ही कोई क्यों मानता और क्यों बड़े बड़े सार्व भौम, विद्वान और कवियों के लिये "कालाय तस्मै नमः" कहने का अवसर आता । काल के समीप सबकी गति कुंठित है; संसार में ऐसी कोई भी वस्त नहीं है जो काल के वश में न हो फिर मि० गांधी की हकीकत ही क्या थी ? अपने आरम्भ किये हुये व्यवस य को छोड़कर एक दम स्वर्ग बास करना पडेगा, यह मि० गांधी को स्वप्न में भी ध्यान न था । विलायत से आए सप्ताहही हुए थे कि ७ अगस्त सन् १६०१ को मि० गांधी सव को शोक सागर में डुबा स्वर्ग को सिधार गये । कितनो ही का कथन है कि स्वदेश में मि० गांधी मरने के लिये ही आये थे । ठीक । जैन समाज का एक कर्तव्य शाली हीरा यों नष्ट हो गया । भारतीय जैन समाज के भूषण श्रीमान् वीरचन्द्र की आत्मा को सद्गति मिले For Private and Personal Use Only
SR No.020902
Book TitleVirchand Raghavji Gandhi Ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamlal Vaishya Murar
PublisherJainilal Press
Publication Year1919
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy