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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री वीरवर्धमानचरिते [ ५.८७ मर्त्य जन्म कुलारोग्यायुर्वीदृचिद्यमादिकान् । विबुध्य दुर्लभान् सुष्ठु यतध्वं स्वहिते बुधाः ॥८७॥ धर्मः श्रीवलिप्रोक्तजिगच्छ्री सुखाकरः । हन्ता भवाद्यदुःखानां कर्तव्यः सर्वयज्ञतः ॥ ८८ ॥ दृश्चिद्वृत्ततपोयोगैः भ्रान्त्याद्यैर्दशलक्षणैः । निहत्य मोहसंतानं मुमुक्षुभिः शिवाये || ८९ || सुखिना विधिना धर्मः कार्यः स्वसुखवृद्धये । दुःखिना दुःखघाताय सर्वथा चेतरैर्जनैः ॥ ९० ॥ स एव पण्डितो धीमान् स एव सुखभाग्भवेत्। स एव जगतां पूज्यः स एव महतां गुरुः ॥ ९१ ॥ यो विहायान्यकर्माणि स्वालम्बनशतानि च । करोति निर्मलाचारैर्धर्ममेकं प्रयत्नतः ||१२|| मत्वेति सुधिया स्वायुर्भङ्गुरं च जगत्त्रयम् । त्यक्त्वाहिबिलवद् गेहं धर्मः कार्योऽत्र निस्तुषः ||१३|| इत्यस्थ ध्वनिना चक्री ज्ञात्वानित्यं जगत्त्रयम् । निर्विण्णः स्वाङ्गराज्यादौ भूत्वा हृदीव्यचिन्तयत् ॥९४॥ अहो भुक्ता जगत्सारा मया भोगा जडात्मना । तथापि न मनागू जाता तृप्तिस्तै में खशर्मणि ॥ ९५ ॥ तो ये विषयासक्ता ईहन्ते भोगसेवनैः । तृष्णानाशं च तैलेन तेऽभिशान्ति जडाशयाः ॥९६॥ यथा यथा नरान् प्रार्थ्या आयान्ति भोगसंपदः । तथा तथा निरुद्धाशा विसर्पति जगत्त्रयम् ॥ ९७ ॥ येन कायेन भुज्यन्ते भोगाः साक्षात् स दृश्यते । पूतिगन्धोऽति निःसारो विष्टाकृमिमलालयः ॥ ९.८ ॥ शरीरं गृह्यते यस्मिन् संसारे स विलोक्यते । कृत्स्नाशर्माकरीभूतः पराधीनो दुराशयः ॥ ९९ ॥ राज्यं रजोनिभं नूनं सर्वपापनिबन्धनम् । कामिन्य एनसां खन्यो बन्धवो बन्धनोपमाः ॥१००॥ मोक्षको अनन्त सुखा देनेवाला समझकर उसकी प्राप्ति के लिए हे भव्यो, संयमको धारण करो ||८६|| इस संसार में मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, आरोग्य, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयम आदिको उत्तरोत्तर दुर्लभ जानकरके ज्ञानियोंको आत्महित में सम्यक प्रकार प्रयत्न करना चाहिए || ८७|| श्री केवल प्रणीत धर्म हो जगत्में श्री और सुखका भण्डार है और संसारके दुःखोंका विनाशक है, इसलिए सर्व प्रयत्न से धर्म करना चाहिए ॥ ८८॥ वह धर्म सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके योगसे, तथा क्षमा आदि दश लक्षणोंसे प्राप्त होता है । अतः मुमुक्षु जनोंको शिवप्राप्ति के लिए मोह- सन्तानका नाश कर उस धर्मका सेवन करना चाहिए || ८९ ॥ | सुखी जनोंको अपने सुखकी वृद्धिके लिए, तथा दुःखी जनोंको अपने दुःखोंके नाशके लिए तथा सर्व साधारण लोगोंको दोनों कार्योंके लिए सर्व प्रकारसे धर्म करना चाहिए ||१०|| संसार में वही पुरुष पण्डित है, वही बुद्धिमान है, वही जगत्का पूज्य है, वही महापुरुषोंका माननीय है और वही सुखका भागी होता है जो अपने आश्रित सैकड़ों अन्य कार्योंको छोड़कर प्रयत्नपूर्वक निर्मल आचरणोंके द्वारा एकमात्र धर्म को करता है ।।९१-९२ || ऐसा समझकर अपनी आयु और तीन जगत् को क्षणभंगुर मानकर तथा शरीरको सर्पके बिल समान छोड़कर निर्द्वन्द्व हो धर्म करना चाहिए ||१३|| इस प्रकार क्षेमंकर तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे चक्रवर्तीने तीन जगत्को अनित्य जानकर और अपने शरीर, राज्यादिसे विरक्त होकर हृदयमें यह विचारने लगा - अहो, मुझ जड़ात्माने जगत् में सारभूत सभी भोगोंको भोगा है, तथापि उनसे मेरे इन्द्रिय-सुखमें जरा-सी भी तृप्ति नहीं हुई है, अतः जो विषयासक्त जन भोगोंके सेवनसे तृष्णाके नाशकी इच्छा करते हैं, जड़ाशय (मूर्ख ) तेलसे अग्निको शान्त करना चाहते हैं । ९४ - ९६ ॥ जैसे-जैसे इच्छित भोग सम्पदाएँ मनुष्योंके समीप आती हैं वैसे-वैसे ही उसकी आशाएँ तीन जगत्में फैलती जाती हैं ||१७|| जिस शरीर से ये भोग भोगे जाते हैं, वह साक्षात् पूर्ति गन्धवाला, निःसार और विष्टा, कृमि एवं मलका घर दिखाई देता है ||१८|| जिस संसार में यह शरीर ग्रहण किया जाता है, वह समस्त दुःखों की खानिरूप, पराधीन और दुर्विपाकरूप दिखाई देता है ॥ ९९ ॥ | यह राज्य निश्चयसे धूलिके समान है और सर्व पापोंका कारण है । ये For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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