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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४.९० ] चतुर्थोऽधिकारः पितास्यादौ जिनागारे कृत्वा कल्याणवर्धकान् । महाभिषेकपूजादीन् पञ्चकल्याणभागिनाम् ॥७७॥ तर्पयित्वा सुदानाद्यैर्बन्धुदीनादिवन्दिनः । गीतनर्तनवाद्याद्यैश्चक्रे जातमहोत्सवम् ॥७॥ बालचन्द्र इवासाद्य क्रमाद् वृद्धिं स सुन्दरः । पयःपानान्ननेपथ्यैः स्वयोग्यः सकलप्रियः ॥७९॥ पठित्वानेकशास्त्राणि ह्यम्यस्य निखिलाः कलाः । रूपलावण्यकान्त्यादिगुण कीव राजते ॥८॥ ततोऽस्मै यौवने तातो विवाहविधिना मुदा । कन्यां कनकवत्याख्यां ददौ गृहिवृषाप्तये ।।८१॥ अन्येधुर्भार्यया साधं कुमारः क्रीडितुं ययौ । महामेरुं जिनार्चादीन् वन्दितुं च शुमाय सः ॥४२॥ तत्र वीक्ष्यावधिज्ञानवीक्षणं मुनिपुङ्गवम् । नभोगाम्यायनेकर्द्धिभूषितं त्रिःपरीत्य सः ॥८३॥ प्रणम्य शिरसाप्राक्षीद्धर्मार्थीति तदाप्तये । भगवन्मेऽनघं धर्म ब्रूहि येनाप्यते शिवम् ॥८॥ आकर्ण्य तद्वचो योगी जगावित्थं तदीप्सितम् । दक्ष त्वमेकचित्तेन शृणु धर्म दिशाम्यहम् ॥४५॥ भवाब्धौ पतनाद् भन्यान् य उद्धत्य शिवालये । धत्ते वा त्रिजगद्राज्ये तं धर्म विद्धि तत्त्वतः ॥८६॥ येनावाभ्युदयः पुंसां मनोरथशतागमः । विलीयन्तेऽधदुःखाद्या भ्रमेत् कीर्तिर्जगत्त्रये ॥७॥ अमुत्र येन जायन्ते देवराजादिभूतयः । सर्वार्थसिद्धितीर्थेशबलचक्रिपदानि च ॥८॥ तं धर्म केवलिप्रोक्तं जानीहि त्वं सुखाकरम् । अहिंसालक्षणं सारं निःपापं नापरं क्वचित् ।।८९॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्म संगविवर्जनम् । ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञकाः ॥१०॥ सुवर्णमय प्राकार, प्रतोली और जिनालयोंसे शोभित है। उसका स्वामी कनकपुंख नामका एक विद्याधरेश था । उसकी सुवर्णके समान उज्ज्वल देहकान्तिको धारण करनेवाली कनकमाला नामकी प्रिया थी। उन दोनोंके वह सिंहकेतुदेव सौधर्म स्वर्गसे च्युत होकर पुण्यसे स्वर्णकान्तिका धारक कनकोज्ज्वल नामका पुत्र हुआ ।।७२-७६।। उसके जन्म होनेपर उसके पिताने सर्व-प्रथम जिनालयमें पंचकल्याणकोंके भोक्ता तीर्थंकरदेवोंका कल्याण-वर्धक महाभिषेकपूर्वक महापूजन करके, उत्तम दान-मानादिसे बन्धुओं, दीनजनों और वन्दीगणोंको तृप्त कर गीत, नृत्य, वादित्रादिसे उसका जन्म-महोत्सव किया ॥७७-७८|| सकल जनोंको प्रिय वह सुन्दर बालक अपने योग्य दुग्ध-पान, अन्नाहार और वस्त्राभूषणादिको प्राप्त कर बालचन्द्रके समान क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर, अनेक शास्त्रोंको पढ़कर, और समस्त कलाएँ सीखकर रूप, लावण्य और कान्ति आदि गुणोंके द्वारा देवके समान शोभाको प्राप्त हुआ ॥७९-८०।। तदनन्तर यौवन अवस्थामें उसके पिताने गृहस्थ धर्मकी प्राप्तिके लिए हर्षसे विधिपर्वक कनकवती नामकी कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया ।।८।। किसी एक दिन वह अपनी भार्याके साथ क्रीडा करने और जिनप्रतिमाओंका पूजन-वन्दन करनेके लिए महामेरु पर्वतपर गया ॥८२। वहाँ पर अवधिज्ञानरूप नेत्रके धारक, आकाशगामी आदि अनेक ऋद्धियोंसे भूषित उत्तम मुनिराजको देखकर उसने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर और मस्तकसे नमस्कार करके धर्म-प्राप्तिके लिए धर्म के इच्छुक उसने धर्मका स्वरूप पूछा-हे भगवन् , मुझे धर्मका स्वरूप कहिए, जिससे कि शिवपदकी प्राप्ति होती है ।।८३-८४॥ उसके वचन सुनकर योगीश्वरने उसको अभीष्ट वचन इस प्रकार कहे-हे चतुर, मैं धर्मका स्वरूप कहता हूँ, तू एकाग्र चित्तसे सुन ||८५|| जो संसार-समद्रमें पतनसे भव्योंका उद्धार कर तीन जगतके राज्य स्वरूप शिवालयमें रखता है, उसे परमार्थसे धर्म जानो ।।८।। जिसके द्वारा इस लोकमें प्राणियोंके सैकड़ों मनोरथोंका आगमनरूप अभ्युदय प्राप्त होता है, पाप-जनित दुःख आदि विलीन हो जाते हैं और तीन लोकमें कीर्ति फैलती है, तथा परलोकमें जिसके द्वारा देवेन्द्र आदिकी विभूतियाँ, सर्वार्थसिद्धि-कारक तीर्थंकर, चक्रवर्ती और बलदेव आदि पद प्राप्त होते हैं, उसे तुम सर्व सुखोंका भण्डार केवलि-भाषित धर्म जानो। वह धर्म अहिंसा लक्षणवाला है, सार है और निष्पाप है। इसके अतिरिक्त और कोई धर्म सत्य नहीं है ।।८७-८९॥ वह For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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