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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री वीरवर्धमानचरिते [ ४.६२ ततश्चैत्यालये गत्वा दिव्याष्टविध पूजनैः । सोऽहंतां मणिमूर्तीनां भक्त्या चक्रे महामहम् ||३२|| पुनः श्रीप्रतिमानां नृलोकनन्दीश्वरादिषु । सर्वाभ्युदयसिद्ध्यर्थं कृत्वा पूजां जिनेशिनाम् ॥ ६३॥ गणेश | दिमुनीन्द्राणां प्रणामं च मुदामरः । श्रुत्वा तेभ्यः सुतत्वादीनुपायं बहुधावृषम् ||६४ || आसाद्यानु निजं स्थानं स्वपुण्यजनितां श्रियम् । स्वीचकार महादेवी विमानादिकगोचराम् ॥६५॥ इत्यादिविविधं पुण्यं सदार्जगन् सुचेष्टया । सप्तहस्तोरुदिव्याङ्गो नेत्रोन्मेष/ दिवर्जितः ॥ ६६ ॥ आद्य क्ष्मान्तावधिज्ञानविक्रियर्द्धिबलान्वितः । अतीतैर्द्विसहस्राब्दैः सुधाहारं हृदाहरन् ।। ६७ ।। त्रिंशद्दिनैरतिक्रान्तैर्मनागुच्छ्वासमाभजन् । पश्यन् रूपं विलासं च नर्तनं दिव्ययोषिताम् ॥ ६८ ॥ कुर्वन् क्रीडां स्वदेवीभिः सौधोद्यानाचलादिषु । स्वेच्छया विहरन् भूत्या संख्यद्वीपाद्विषु स्वयम् ।। ६९ ।। सर्वदुःखातिगो विश्वशर्मामृताब्धिमध्यगः । द्विसागरोपमायुष्कः स्वेदधातुमलातिगः ॥ ७० ॥ भुञ्जानो विविधान् भोगान् पुरा सुचरणार्जितान् । न जानानो गतं कालं मुदास्ते तत्र सोऽमरः || ७१ || अथ प्राधातकीखण्डे विदेहे पूर्वसंज्ञके । देशोऽस्ति मङ्गलावत्याख्येयमाङ्गल्यकारकः ॥७२॥ तन्मध्ये विजयार्धाद्विर्गव्यूत्येकशतोन्नतः । भाति कूटजिनागार वनश्रेणिपुरादिषु ||७३ || तस्याद्रेरुत्तरश्रेण्यां नगरं कनकप्रभम् । राजते कनकप्राकारप्रतोली जिनालयैः ॥७४॥ पतिः कनकपुङ्खाख्यस्तस्यासीत् खेचराधिपः । प्रिया कनकमालाख्यास्याभवत् कनकोज्ज्वला ||७५ ॥ तयोश्च्युत्वा स सौधर्मात् सिंहकेतुसुरः शुभात् । कनकोज्ज्वलनामाभूत् सूनुः कनककान्तिमान् ॥७६॥ मण्डित सम्पूर्ण शरीरको प्राप्त कर और अवधिज्ञानसे पूर्व भवमें पालन किये गये व्रत-जनित फलको और प्रशंसनीय धर्मके माहात्म्यको जानकर उस देवने धर्म में अपनी बुद्धिको और भी दृढ़ किया ।।६०-६१॥ तत्पश्चात् चैत्यालय में जाकर उसने अर्हन्तोंकी मणिमयी मूर्तियोंकी दिव्य अष्टविध द्रव्योंसे भक्ति के साथ महापूजन किया || ६२ ॥ पुनः सर्व अभ्युदयकी सिद्धिके लिए उसने मनुष्य लोक और नन्दीश्वर आदि द्वीपोंमें स्थित श्री प्रतिमाओंका और श्री जिनेन्द्रों तथा गणधर दि मुनीन्द्रोंका पूजन करके, प्रणाम करके और हर्ष के साथ उनसे जीवादि सुतत्त्वोंका उपदेश सुनकर और अनेक प्रकारसे पुण्यका उपार्जन कर वापस अपने स्थानपर आकर अपने पुण्यसे उत्पन्न हुई महादेवियोंकी और विमान आदि सम्बन्धी सर्व लक्ष्मीको उसने स्वीकार किया ||६३-६५।। इस प्रकार वह देव अपनी उत्तम चेष्टासे जिनप्रतिमापूजन, धर्मश्रवण आदिके द्वारा नाना प्रकार के पुण्यका उपार्जन करता हुआ स्वर्ग में समय बिताने लगा । उसका दिव्य शरीर सात हाथ उन्नत था, उसके नेत्र निमेष-उन्मेष आदिसे रहित थे, पहली रत्नप्रभा पृथिवीके अन्ततक के अवधिज्ञान और तत्प्रमाण विक्रिया करनेकी शक्तिसे युक्त था, दो हजार वर्ष बीतने पर मन से अमृत आहार करता था, तीस दिन बीतनेपर कुछ थोड़ी-सी श्वास लेता था और दिव्याङ्गनाओंके रूप, विलास और नृत्यको देखता हुआ, देव-भवन, उद्यान और पर्वतादिपर अपनी देवियोंके साथ क्रीडा करता, असंख्य द्वीपों और पर्वतोंपर स्वयं अपनी इच्छानुसार विभूति के साथ विहार करता रहता था । वह सर्व दुःखोंसे रहित और प्रस्वेद, रक्त-मांसादि सर्व धातुओंसे रहित शरीरवाला था, समस्त सुखरूप अमृत सागरमें निमग्न रहता था, और वह दो सागरोपमकी आयुका धारक था । इस प्रकार पूर्व आचरित चारित्रसे उपार्जित नाना प्रकारके भोगोंको भोगता हुआ वह देव बीतते हुए कालको नहीं जानता हुआ आनन्द से स्वर्ग में रहने लगा ||६६-७१ ॥ अथानन्तर पूर्वधातकीखण्ड में पूर्व विदेह में मंगलावती नामका मंगलकारक देश है, उसके मध्य में एक सौ कोश ऊँचा विजयार्धपर्वत है, वह कूट, जिनालय, वनश्रेणी और नगर आदि से शोभायमान है। उस पर्वतकी उत्तरश्रेणी में कनकप्रभ नामका एक नगर है, जो For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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