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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ ३.७०] तृतीयोऽधिकारः तत्र षोडश वाराशिप्रमायुष्कौ सुरोत्तमौ । दिव्यदेहधरौ दीप्तौ सप्तधातुविवर्जितौ ॥५७॥ विमानमेरुनन्दीश्वरादिषु श्रीजिनेशिनाम् । अर्चाचनपरौ पञ्चकल्याणकरणोद्यतौ ॥५८॥ सहजाम्बरभूषास्त्रविक्रियादिभूषितौ । सर्वासातातिगौ कान्तौ स्वतपश्चरणार्जितान् ॥५१॥ भुञ्जानौ विविधान् मोगान् स्वदेवीमिः समं मुदा । शर्माब्धिमध्यगौ पुण्यपाकात्तौ तिष्ठतः सदा ॥६॥ अथास्मिन्नादिमे द्वीपे सुरम्य विषये शुभे । पोदनाख्ये पुरे भूपः प्रजापतिरभूच्छुभात् ॥६॥ देवी जयावती तस्य तयोश्च्यत्वा दिवोऽजनि । विशाखमतिराजाचरोऽमरो विजयाख्यतुक ॥१२॥ विश्वनन्दिचरो देवः स्वर्गादेत्याभवत्सुतः। तस्य राज्ञो मृगावत्यां त्रिपृष्ठाख्यो महाबली ॥६३॥ चन्द्रेन्द्रनीलवर्णाङ्गो दीप्तिकान्तिकलाङ्कितौ । न्यायमार्गरतौ दक्षौ सप्रतापौ श्रुतान्वितौ ॥६॥ खभचरसुराधीशैः सेव्यमानपदाम्बुजौ । महाविमव संपन्नौ दिव्याभरणमण्डितौ ॥६॥ क्रमात्सद्यौवनं प्राप्य लक्ष्मीक्रीडागृहोपमौ । प्राङ्महापुण्यपाकेन संप्राप्तपरमोदयौ ॥६६॥ दिव्यभोगोपभोगाढ्यौ दानादिगुणशालिनौ । इन्द्रादित्याविवाभातस्तावाद्यौ रामकेशवौ ॥६७॥ अथेह विजया|त्तरश्रेण्यामलकापुरे । मयूरग्रीवराजाभूद् राज्ञी नीलाञ्जनास्य च ॥६८॥ तयोविशाखनन्दः स चिरं भ्रान्त्वा भवार्णवे । स्वर्गादेत्य सुतो जात: क्वचित्पुण्यविपाकतः ॥६९॥ अश्वग्रीवाभिधो धीमांत्रिखण्डश्रीविमण्डितः । अर्धचक्री सुरैः सेव्यः प्रतापो भोगतत्परः ॥७०।। कि विशाखति सन्मुनिराजका जीव सुखमें मग्न देव था ।।५३-५६॥ वहाँपर उन उत्तम दोनों देवोंकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी, दोनों सप्तधातु-रहित दीप्त दिव्य देहके धारक थे और दोनों ही सदा विमानस्थ तथा मेरुपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप आदिमें स्थित श्रीजिनेन्द्र देवोंकी प्रतिमाओंके पूजनमें तत्पर एवं तीर्थंकरोंक पंचकल्याणकों के करनेमें उद्यत रहते थे। वे सहजात दिव्य वस्त्र, आभूषण, माला और विक्रिया ऋद्धि आदिसे भूषित, सर्व प्रकारकी असातासे रहित और सौन्दर्ययुक्त थे। तथा अपने पूर्वभक्के तपश्चरणसे उपार्जित नाना प्रकारके भोगोंको आनन्दपूर्वक अपनी देवियोंके साथ भोगते हुए पुण्यकर्मके विपाकसे सदा सुखसागरमें मग्न रहने लगे ॥५७-६०॥ अथानन्तर इस आदिम जम्बूद्वीपमें शुभ सुरम्य देशके पोदनपुर नामके नगर में प्रजापति नामका राजा राज्य करता था। पुण्योदयसे उसकी जयावती नामकी एक सुन्दर रानी थी । उनके विशाखभूति राजाका जीव वह देव स्वर्गसे चय कर विजय नामका पुत्र हुआ॥६१-६२।। उसी राजाकी दूसरी रानी मृगावतीके विश्वनन्दीका जीव वह देव चय कर त्रिपृष्ठ नामका महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ॥६३॥ इनमें से विजयका शरीर चन्द्रवर्ण और त्रिपृष्टका शरीर नीलवर्णका था। दोनों दीप्ति, कान्ति और कलासे संयुक्त थे। दोनों न्यायमार्गमें निरत, दक्ष, प्रतापयुक्त, शास्त्रज्ञानवाले थे। खेचर, भूचर और देवोंके स्वामियों द्वारा उनके चरणकमलोंकी सेवा की जाती थी। दोनों महाविभवसे सम्पन्न, दिव्य आभरणोंसे मण्डित क्रमसे यौवन अवस्थाको प्राप्त होकर लक्ष्मीके क्रीडागृहकी उपमाको धारण करते थे। पूर्वोपार्जित महापुण्यके परिपाकसे परम उदयको प्राप्त, दिव्य भोगोपभोगोंसे युक्त, दानादिगुणशाली वे दोनों भाई चन्द्रमा और सूर्य के समान मालूम पड़ते थे। वे दोनों इस अवसर्पिणीकालके आध बलभद्र और वासुदेव थे । अर्थात् विजय प्रथम बलभद्र और त्रिपृष्ठ प्रथम नारायण थे ॥६४-६७॥ अथानन्तर इस भारतवर्ष के विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें अलकापुर नामके नगरमें मयूरग्रीव नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी नीलांजना थी। वह विशाखनन्द चिरकाल तक संसार-सागरमें परिभ्रमण कर पुण्यके विपाकसे स्वर्गमें गया और फिर वहाँसे चय कर उक्त राजा-रानीके अश्वग्रीव नामका बुद्धिमान, त्रिखण्डकी लक्ष्मीसे मण्डित, देवोंसे For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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