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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [ ३.४२विशाखतिरप्याप्य पश्चात्तापं दुरुत्तरम् । विनिन्ध बहुधात्मानं लब्ध्वा संवेगमञ्जसा ॥४२॥ भवलक्ष्म्यङ्गभोगादौ तमभ्येत्य मुनीश्वरम् । त्यक्त्वा संगांस्त्रिधा दीक्षां प्रायश्चित्तमिवाददौ ॥४३॥ ततस्तपोऽतिनिःपापं कृत्वा घोरतरं चिरम् । स्वशक्त्या विधिना कृत्वा मृत्यौ संन्यासमूर्जितम् ॥४४॥ तत्फलेनामवत्कल्पे महाशुक्राभिधेऽमरः । महर्द्धिकोऽतिधर्मात्मा विशाखभूतिसंयमी ॥४५॥ विश्वनन्दी भ्रमन्तानादेशग्रामवनादिकान् । तपसातिकृशाभूतः पक्षमासादिनाबलः ॥४६॥ क्वचित्स्वतनुसंस्थित्यै स्वीर्यापथात्तलोचनः । शुष्कौष्ठवदनाङ्गोऽसौ प्राविशन्मथुरां पुरीम् ॥१७॥ तदा दुर्घ्य लनान्निन्या भ्रष्टराज्यो महीपतेः । कस्यचिदूतभावेनागत्य तां स पुरीं शठः ॥४४॥ विशाखनन्द एवाधीवैश्यासौधाग्रसंस्थितः । सद्यःप्रसूतगोशृङ्गघातात्तं दुर्बलं मुनिम् ॥४९॥ प्रस्खलन्तं समाक्ष्यातिक्षीणदेहपराक्रमम् । इत्यवादीत् प्रहासेन दुर्वचः स्वस्य घातकम् ॥५०॥ मुने पराक्रमस्तेऽद्य शिलास्तम्भादिभङ्गकृत् । क्क गतः प्राक्तनो दर्पः शौर्य क्व च ममादिश ॥५१॥ यतस्त्वं दृश्यतेऽतीव दुर्बलः शक्तिदूरगः । जल्लात्ताङ्गोऽतिशीताद्यैर्दग्धकायः शवादिवत् ॥५२॥ इति तदुर्वचः श्रुत्वा क्रोधमानोदयाद्यतिः । भूत्वा कोपेन रक्ताक्ष इत्यन्तर्गतमाह सः ॥५३॥ रे दुष्ट मत्तपोमाहात्म्यात्प्रहासफलं महत् । प्राप्यसि त्वं न संदेहः कटुकं मूलनाशकृत् ॥५४॥ ईदृशं स तदुच्छित्यै निदानं बुधनिन्दितम् । कृत्वा स्वतपसा प्रान्ते संन्यासेनाभवद्व्यसुः ॥५५॥ ततस्तपःफलेनासौ तत्रैवाभून्सुरो दिवि । यत्रास्ति सुखसंलीनो विशाखभूतिसन्मुनिः ॥५६॥ इस घटनाके पश्चात् विशाखभूतिने भी भारी पश्चात्तापको प्राप्त होकर, अपनी अनेक प्रकारसे निन्दा करके शीघ्र संसार, राज्यलक्ष्मी, और शरीर-भोग आदिमें वैराग्यको प्राप्त होकर उक्त मुनीश्वरके समीर जाकर मन-वचन-कायसे सर्व परिग्रहों को छोड़कर प्रायश्चित्तके समान दीक्षाको ग्रहण कर लिया॥४२-४३।। इसके पश्चात् चिरकाल तक अपनी शक्तिके अनुसार अतिनिर्मल घोरतर तप कर और मरण-समय विधिपूर्वक उत्कृष्ट संन्यासको धारण करके उसके फलसे वह अति धर्मात्मा विशाखभूति संयमी महाशुक्र नामके कल्पमें महर्द्धिक देव उत्पन्न हुआ।।४४-४५।। इधर विश्वनन्दी मुनि भी पक्ष-मास आदिके तपोंके करनेसे अतिकृश शरीर एवं निर्बल होकर नानादेश, ग्राम, वनादिकमें विहार करते ओठ, मुख और शरीरके सूख जानेपर भी ईर्यापथपर दृष्टि रखे हुए अपने शरीरकी स्थितिके लिए मथुरापुरीमें प्रविष्ट हुए। उस समय निन्द्य दुर्व्यसनोंके सेवनसे राज्यभ्रष्ट हुआ और किसी अन्य राजाका दूत बनकर मथुरापुरीमें आकर किसी वेश्याके भवनके अग्रभागपर बैठा हुआ वह कुबुद्धि विशाखनन्द सद्यःप्रसूता गायके सींगके आघातसे अतिकृशदेह और क्षीणपराक्रम दुर्बल उन विश्वनन्दी मुनिको गिरता हुआ देखकर हास्यपूर्वक अपना घात करनेवाले दुवचन इस प्रकार बोला ।।४६-५०।। हे मुने, शिलास्तम्भ आदिको भग्न करनेवाला तुम्हारा वह पराक्रम कहाँ गया ? तुम्हारा वह पहलेवाला दर्प और शौर्य कहाँ गया ? सो मुझे बताओ। आज तो तुम शक्तिसे अतिदूर और अत्यन्त दुबैल दिखते हो ? तुम्हारा यह शरीर मलसे व्याप्त और अतिशीतसे दग्ध मुर्दे आदिके समान दिखाई दे रहा है ॥५१-५२॥ इस प्रकारके उसके दुर्वचन सुनकर क्रोध और मान कषायके उदयसे यह मुनि कोपसे रक्तनेत्र होकर मनमें बोला-अरे दुष्ट, मेरे तपके माहात्म्यसे तू इस प्रहास्यका स्वमूल-नाशक महान् कटुक फल पायेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान उसके विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तपसे अन्त में संन्यासके साथ मरा और उस तपके फलसे वह उसी स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ, जहाँपर For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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