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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १.६७] प्रथमोऽधिकारः इत्यत्र कालदोषेण हीयमाने श्रुते सति । मुनि तबली नाना पुष्पदन्तोऽपरो यतिः ॥५३॥ श्रुतनाशभयात्ताभ्यां शेषं संस्थापितं श्रुतम् । पुस्तकेषु समं संधैः कृत्वा पूजामहानये ॥५४॥ ज्येष्ठे धवलपञ्चम्यां ह्यतोऽत्रतौ मुनीश्वरौ । धर्मवृद्धिकरौ स्तुत्यौ वन्द्यौ मे स्तां श्रुताप्तये ॥५५।। अन्ये ये बहवो भूताः कुन्दकुन्दादिसूग्यः । सुकवीन्द्राश्च निर्ग्रन्थाः सन्ति सर्वे महीतले ॥५६॥ पञ्चाचारादिभूषा ये पाठका जिनवाग्रताः । वन्द्याः स्तुता मया मेऽत्र दधुः स्वस्वगुणांश्च ते ॥५॥ त्रिकालयोगयुक्ता ये महातपोविधायिनः। साधवस्ते जगत्पूज्याः सन्तु तत्तपसे मम ॥५०॥ या भारती जगन्मान्या जिनास्याम्बुजसंभवा । कवित्वरचने दक्षां शुद्धां वृत्ते मतिं ग्यधात् ॥५९॥ मेऽत्र सैव मया वन्द्या नुता विश्वार्थदर्शिनोम् । करोतु परमां बुद्धिं दृग्ज्ञानारब्धसिद्धये ॥६॥ इत्थं सदेवसिद्धान्तगुरून् सद्गुणशालिनः । मदिष्टानिष्टसिद्ध्यर्थ नत्वा च मङ्गलाप्तये ॥६॥ वक्त-श्रोतकथादीनां लक्षणं वच्मि संप्रति । यैः प्रतिष्ठां परां याति ग्रन्थोऽत्र स्वपरार्थत् ॥१॥ ये सर्वसंगनिर्मुक्ताः ख्यातिपूजापराङ मुखाः । अनेकान्तमतोपेताः सर्वसिद्धान्तपारगाः ॥३३॥ अकारणजगबन्धवो भव्याङ्गिहितोद्यताः। दृचिवृत्ततपोभूषाः साम्यादिगुणसागराः॥६॥ निर्लोभा निरहंकारा गुणिधार्मिकवत्सलाः । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशनपरायणाः ॥१५॥ महाधियो महाप्राज्ञा ग्रन्थादिरचने क्षमाः । विख्यातकीर्तयो मान्या बुधैः सत्यवचोऽङ्किताः ॥१६॥ इत्याद्यन्यैर्गुणैः सारैर्भूषिताः सूरयोऽत्र थे । ते वक्तारोऽथ शास्त्राणां बुधैया महोत्तमाः ॥६॥ तदनन्तर इस भरतक्षेत्रमें कालके दोषसे श्रुतज्ञानकी हीनता होनेपर भूतबली और पुष्पदन्त नामके दो मुनिराज हुए। उन्होंने श्रुत-विनाशके भयसे अवशिष्ट श्रुतको पुस्तकों में लिखकर स्थापित किया और सर्व संघके साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन उनकी महापूजा की । वे दोनों मुनीश्वर धर्मकी वृद्धि करनेवाले हैं, स्तुत्य हैं और वन्दनीय हैं, वे मुझे श्रुतकी प्राप्ति करें ॥५३-५५।। इनके पश्चात् कुन्दकुन्द आदि अन्य बहुत-से आचार्य और निर्ग्रन्थ कवीश्वर इस महीतलपर हुए हैं और जो पंच आचार आदिसे भूषित हैं, वे सब आचार्य, तथा जिनवाणीके पठन-पाठनमें निरत पाठक ( उपाध्याय ) मेरे द्वारा वन्दनीय और संस्तुत हैं, वे सब मुझे अपने-अपने गुणोंको देवें ।।५६-५७॥ जो त्रिकालयोगसे संयुक्त हैं, महातपोंके करनेवाले हैं और जगत्पूज्य हैं, वे सर्व साधुजन मेरे उन-उन तपोंकी प्राप्तिके लिए सहायक होवें ॥५८॥ जो भारती (सरस्वती) जगन्मान्य है और जिनेन्द्रदेवके मुख-कमलसे निक है, वह कविताके रचनेमें और चारित्रके बढ़ाने में मेरी बुद्धिको दक्ष और शुद्ध करे ॥५५॥ वह भारती ही मेरे लिए सदा वन्दनीय हैं और मेरे द्वारा नमस्कृत हैं, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आरम्भ किये गये इस ग्रन्थकी सिद्धिके लिए मेरी बुद्धिको परम शुद्ध और समस्त अर्थको दिखानेवाली करे ॥६॥ इस प्रकार सद्-गुणशाली सुदेव, शास्त्र और गुरुको अपने इष्ट कार्यमें आनेवाले अनिष्टोंको दूर करनेके लिए तथा मंगलकी प्राप्तिके लिए नमस्कार करके अब वक्ता, श्रोता और कथा आदिका लक्षण कहता हूँ, जिससे कि स्व-परका उपकारक यह ग्रन्थ इस लोकमें परम प्रतिष्ठाको प्राप्त होवे ॥६१-६२।। ___वक्ताका लक्षण-जो सर्व परिग्रहसे रहित हों, ख्याति और पूजासे पराङ्मुख हों, अनेकान्त मतके धारक हों, सर्व सिद्धान्तके पारगामी हों, जगत्के अकारण बन्धु हों, भव्य प्राणियों के हित में उद्यत रहते हों, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपसे भूषित हों, साम्यभाव आदि गुणोंके सागर हों, लोभ-रहित हों, अहंकार-विहीन हों, गुणी और धार्मिकजनोंके साथ वात्सल्यभावके धारक हों, जैनशासनके माहात्म्य-प्रकाशनमें सदा तत्पर रहते हों, महाबुद्धिशाली हों, महान् विद्वान हों, ग्रन्थ आदिके रचने में समर्थ हों, प्रख्यात कीर्तिवाले For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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