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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री - वीरवर्धमानचरिते [ १.३८ त्रैलोक्यशिखरावासान् कर्मकायातिगान् परान् । सद्गुणाष्टमयान् सर्वाननन्तान् ज्ञानकायिकान् ||३८|| अमूर्तान् मनसा ध्येयान् मुमुक्षुभिरनारवम् । स्मरामि सिद्धये सिद्धांस्तद्गुणाप्त्यै सुखाकरान् ||३९|| कृत्स्नान् वृषभसेनादींश्चतुर्ज्ञानधरान् परान् । सप्तर्द्धिभूषितान् वन्दे कवीन्द्रांश्च गणाधिपान् ||४०|| श्री गौतमः सुधर्माख्यः श्रीजम्बूस्वामिरन्तिमः । मोक्षं गते महावीरे त्रयः केवलिनोऽप्यमी ॥। ४१॥ मध्ये द्वाषष्टिवर्षाणां जाता ये धर्मवर्तिनः । शरणं तत्क्रमाब्जानां तद्गुणार्थी व्रजाम्यहम् ||४२॥ नन्दी हिनन्दि मिश्राख्योऽपराजितमुनीश्वरः । गोवर्धनस्तता मद्रबाहुस्वामीति पञ्च ये ||४३|| सर्वपूर्वाङ्गवेत्तारोऽत्रोत्पन्नाखिजगद्विताः । अन्तरे शतवर्षाणां तेषामङ ह्रींश्चिदे स्तुवे ||४४ || विशाख: प्रोटलाचार्यः क्षत्रियो जयसंज्ञकः । नागः सिद्धार्थनामा जिनसेनो विजयस्ततः ॥ ४५|| बुद्धिलो गङ ्मगसंज्ञोऽथ सुधर्ममुनिपुङ्गवः । दशपूर्बंधरा एवं जाता एकादशात्र ये ॥४६॥ शांतिशत वर्षाणां मध्ये धर्मप्रकाशकाः । दृक् चिद् वृत्तात्मनां तेषां चरणाब्जान् नमाम्यहम् ॥४७॥ नक्षत्रो जयपालाख्यः पाण्डुश्च द्रु सेन वाक् । कंस इत्यत्र जाता ये येकादशाङ्गवेदिनः ||४८ || द्विशताधिकविंशत्यब्दानां मध्ये मुनीश्वराः । धर्मप्रवर्तिनस्तेषां स्तुवे पादसरोरुहान् ||४९ || सुभद्राख्यो यशोभद्रो जयबाहुस्तपोधनः । लोहाचार्य इतीहोत्पन्ना ये साचाङ्गधारिणः ॥ ५० ॥ विनयादिधरः श्रीदत्ताख्योऽथ शिवदत्तवाक् । अर्हदत्त इहोत्पत्ता इत्यमी येऽङ्ग पूर्वयोः ।। ५१ ।। मध्ये रेशधरा अष्टादशाधिकशतात्मनाम् । वर्षाणामन्तरे स्तामि तान्मुनीन् ग्रन्थवर्जितान् ॥ ५२ ॥ पूजित हैं और धर्म साम्राज्यके नायक हैं, उन सबकी में इस ग्रन्थ के आदिमें स्तुति और वन्दना करता हूँ । वे मेरे विघ्नोंके दूर करनेवाले होवें ॥ ३६-३७|| जो तीन लोकके शिखरपर निवास करते हैं, कर्मरूप शरीर से रहित हैं, ज्ञानरूप शरीरके धारक हैं, उत्तम अष्ट सद्गुणोंसे संयुक्त हैं, अमूर्त हैं, मुमुक्षुजनोंके द्वारा निरन्तर मनसे ध्यान किये जाते हैं और सुखके भण्डार हैं, ऐसे उन समस्त अनन्त सिद्ध भगवन्तोंको उनके गुणोंकी प्राप्तिके लिए और सिद्धिके लिए मैं. स्मरण करता हूँ || ३८-३९ || चार ज्ञानके धारक, सात ऋद्धियोंसे विभूषित, परम कवीन्द्र वृषभसेन आदि समस्त गणधरोंकी मैं वन्दना करता हूँ ||४०|| भगवान् महावीर स्वामीके मोक्ष चले जानेपर श्री गौतम, सुधर्मा और अन्तिम जम्बूस्वामी ये तीन केवली यहाँपर बासठ वर्ष तक धर्मका प्रवर्तन करते रहे, अतः उनके गुणोंका इच्छुक मैं उनके चरण-कमलोंकी शरणको प्राप्त होता हूँ ।।४१४२॥ नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु स्वामी ये पाँच मुनीश्वर सर्व अंग और पूर्वोके वेत्ता एवं तीन जगत्के हितकर्ता सौ वर्षोंके अन्तरकालमें हुए, मैं ज्ञान-प्राप्ति के लिए उनके चरणोंकी स्तुति करता हूँ ||४३-४४|| इनके पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, जिनसेन, विजय, बुद्धिल, गंग और सुधमें ये ग्यारह मुनिपुंगव एक सौ तेरासी वर्ष के भीतर दश पूर्व और ग्यारह अंगके धारक और धर्मके प्रकाशक हुए । मैं उन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रधारी मुनिराजोंके चरण-कमलोंको नमस्कार करता हूँ ।।४५-४७॥ इनके पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, द्रुमसेन और कंस ये ग्यारह अंगोंके वेत्ता मुनीश्वर सौ बीस वर्ष तक धर्मके प्रवर्तक हुए। मैं उनके चरण-कमलोंकी स्तुति करता हूँ ॥४८-४९ ॥ इनके पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, जयबाहु और लोहाचार्य ये चार तपोधन आद्य आचारांग के धारक यहाँपर उत्पन्न हुए ||५० ॥ तत्पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये अंग-पूर्वी एकदेशके ज्ञाता आचार्य एक सौ अठारह वर्ष के भीतर यहाँ पर उत्पन्न हुए । उन सब निर्ग्रन्थ मुनिराजोंकी मैं स्तुति करता हूँ ||५०-५२ ॥ १. अ अष्टादशाग्रैकशतात्मनाम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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