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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० श्री-वीरवर्धमानचरिते [१९.११७ काकमांसनिवृत्त्यात्तपुण्यान्मे भविता पतिः । मांसं भोजयितुं गच्छन् भजनं कर्तुमिच्छसि ॥१७॥ नरके घोरदुःखानां तस्य त्वं हि वृथा शठ । अनेन हेतुनायाहं करोमि रोदनं शुचा ॥११॥ श्रुत्वा तदुक्तिमित्याह स हे देवि शुचं त्यज । नाहं तन्नियमस्यैव जातु भङ्ग करोम्यहम् ॥११९॥ इत्युक्त्वा तां स संतोष्य मक्ष्वासाथ तमातुरम् । परिणामपरीक्षायै तस्येदमप्रवीद्वचः ॥१२०॥ मित्रामयापनोदार्थ प्रमोक्तव्यमिदं त्वया । सत्यत्र जीवितव्ये भोः सत्पुण्यं क्रियते मुहुः ॥१२॥ तच्छ्रुत्वा सोऽवदद्धीमान् सुहृत्प्रोक्तमिदं वचः । नोचितं ते जगन्निन्यं श्वभ्रदं धर्मनाशकृत् ॥१२२॥ भन्तावस्था ममायातो यमतो ब्रहि संप्रति । किंचिद्धर्माक्षरं येनामत्रात्मा मे सखायते ॥१२॥ ज्ञात्वा तन्निश्चयं सोऽनु यक्ष्याः सर्व कथानकम् । फलं च तद्वतस्यैव सुप्रीत्या तमबूबुधत् ।।१२४॥ तच्छुत्वाथ स संवेगं धर्मे धर्मफले सुधीः । त्यक्त्वा समस्तमांसादीन् जग्राहाणुव्रतानि च ॥१२५॥ कालान्ते तस्फलेनासौ मुक्त्वा प्राणान् समाधिना । महर्धिकामरो जातः सौधर्मेऽनेकशर्मभाक् ॥१२६॥ सूरवीरस्ततो गच्छन् स्वपुरं तत्र वीक्ष्य ताम् । साश्चर्यहृदयो यक्षीमित्यपृच्छद् गिरा स्वयम् ॥१२७।। देवि मन्मैथुनः किं ते पतिर्जातो न वाधुना । साहेदं मे पति सीत्स किन्तु निर्जरोऽजनि ॥१२४॥ सर्वश्रतोत्थपुण्येन कल्पे सौधर्मनामनि । महर्धिको गुणाढ्योऽस्मद्व्यन्तरत्वपराङ्मुखः ।।१२९॥ तत्र भुङ्क्ते परं सौख्यं देवीनिकरसंभवम् । स्वर्गलक्ष्मी स आसाद्य कुर्वन् पूजां जिनेशिनाम् ॥१३०॥ तदाकर्ण्य स इत्थं स्वहृदयेऽचिन्तयत्सुधीः । अहो पश्य व्रतस्येदं प्रवरं फलमञ्जसा ॥१३१।। पीड़ित है । वह मरकर काक-मांसकी निवृत्तिसे प्राप्त पुण्यके फलसे मेरा पति होगा। किन्तु हे शठ, काक-मांस खिलानेके लिए जाते हुए तुम उसे नरकमें भेजकर वृथा ही घोर दुःखोंका भाजन बनाना चाहते हो। इस कारण शोकसे आज मैं रोदन कर रही हूँ ॥११६-११८।। उसकी यह बात सुनकर वह बोला-हे देवि, तुम शोकको छोड़ो, मैं उसके नियमका कभी भी भंग नहीं करूंगा ॥११९॥ इस प्रकार कहकर और उसे सन्तुष्ट कर वह शीघ्र उस बीमार खदिरसारके पास आया और उसके परिणामोंकी परीक्षाके लिए ये वचन बोला ॥१२०॥ हे मित्र, रोगके दूर करनेके लिए तुम्हें यह काक-मांस उपयोगमें लेना चाहिए। अरे, जीवनके रहनेपर यह पुण्य तो फिर भी किया जा सकता है ॥१२१।। अपने सालेके यह वचन सुनकर वह बुद्धिमान खदिरसार बोला-हे मित्र, ये लोक-निन्द्य, नरक देनेवाले और. धर्मके नाशक वचन कहना उचित नहीं है ॥१२२॥ मेरी यह अन्तिम अवस्था आ गयी है, अतः इस समय तुम धर्मके कुछ अक्षर बोलो, जिससे कि परलोकमें मेरी यह आत्मा सुखी होवे ॥१२३॥ उसका यह निश्चय जानकर तत्पश्चात् उसने यक्षीका सर्व कथानक और उसके व्रतका फल अतिप्रीतिसे खदिरसारको बतलाया ।।१२४|| उसके वचन सुनकर उस सुधी खदिरसारने धर्म और धर्मके फलमें संवेगको धारण कर और सर्व प्रकारके मांसादिकको छोड़कर अणुव्रतोंको ग्रहण कर लिया ॥१२५।। जीवन-कालके अन्त में प्राणोंको समाधिसे त्यागकर वह उसके फलसे सौधर्म स्वर्गमें अनेक सुखोंका भोक्ता महर्धिक देव हुआ ॥१२६॥ तत्पश्चात् अपने नगरको जाते हुए सूरवीरने वनके उसी स्थानपर उस यक्षीको देखकर आश्चर्ययुक्त हृदय होकर उससे स्वयं ही पूछा-हे देवि, मेरा वह बहनोई क्या अब तेरा पति हुआ है, अथवा नहीं हुआ है ? वह बोली-वह मेरा पति नहीं हुआ, किन्तु सर्व व्रतोंसे उपार्जित पण्यसे सौधर्म नामके प्रथम स्वर्गमें हमारी व्यन्तरोंकीक्षदजातिसे पराङमुख, उत्कृष्ट जातिका महाऋद्धिधारी देव हुआ है ।।१२७-१२९॥ वहाँपर वह स्वर्गकी लक्ष्मीको पाकर जिनेश्वर देवकी पूजाको करता हुआ देवियोंके समूहसे उत्पन्न हुए परम सुखको भोग रहा है ॥१३०॥ यक्षीकी यह बात सुनकर वह बुद्धिमान सूरवीर अपने हृदयमें इस प्रकार विचारने For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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