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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९.११६ ] एकोनविंशोऽधिकारः २०९ तत्कृते तु परं पुण्यं पुण्यात्स्वर्गसुखं महत् । धर्मस्य योऽत्र लाभः स्याद्धर्मलामः स उच्यते ॥१०३॥ तदाकर्ण्य जगी भिल्ल इत्थं तं प्रति भो मुने । नाहं मांससुरादीनां स्यागं कर्त क्षमोऽअसा ॥१०॥ तदाकूतं ततो ज्ञात्वा मुनिराह वनेचरम् । काकमांसं त्वया पूर्व भक्षितं किं न वा दिश ॥१०५।। तदाकर्ण्य स इत्याख्यत्कदाचित्तन्न भक्षितम् । मया ततो यमी प्राह ययेवं तर्हि शर्मणे ॥१०६॥ मद्र स्वं नियमं तस्य गृहाण भक्षणेऽधुना । नियमेन विना यस्माजातु पुण्यं न धीमताम् ||१०७॥ सोऽपि तद्वाक्यमाकर्ण्य संतुष्टो दीयतां व्रतम् । इत्युक्त्वाशु तदादाय यतिं नत्वा गृहं ययौ ॥१०॥ कदाचित्तस्य संजातेऽसाध्ये रोगेऽशुमोदयात् । वैद्यस्तच्छान्तये काकमांसौषधं किलादिशत् ॥१०९॥ तदा तदक्षणे दक्षः स्वजनैः प्रेरितोऽवदत् । स इत्यहो व्रतं त्यक्त्वा दुर्लभ भवकोटिमिः ॥११॥ रक्ष्यन्ते ये शहः प्राणास्तैः किं साध्यं सुधर्मिणाम् । यतो भवे भवे प्राणाः स्युः स्यान्न च शर्म व्रतम् ॥ वरं प्राणपरित्यागो बतभङ्गान्न जीवितम् । प्राणत्यागाद्भवेत्स्वर्गः श्वभ्रं च व्रतभङ्गतः ॥११॥ द्दति तन्नियमं श्रुत्वा सारसाख्यपुरात्तदा । आगच्छंस्तत्पुरं सूरवीरस्तन्मिथुनः शुचा ॥११३॥ महागहनमध्यस्थस्य वटस्याप्यधस्तके। कांचिदेवीं रुदन्ती संवीक्ष्याप्राक्षीदिति स्फुटम् ॥११॥ का त्वं वा हेतुना केन रोदिषि ब्रूहि देवते । तदाकावदत्सेदं शृणु भद्र वचो मम ॥१५॥ वनयक्षी वसाम्यन्त्र बनेऽहं व्याधिपीडितः । त्वन्मैथुनो गतायुःखदिरसारोऽशुमाच्च यः ॥११६॥ और जीव-हिंसासे दूर रहना धर्म है ।।१०२।। उस धर्मके करने पर उत्तम पुण्य होता है, पुण्यसे महान स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है। ऐसे धर्मका जो लाभ (प्राप्ति) यहाँपर हो. वही धर्मलाभ कहा जाता है ॥१०३।। यह सुनकर वह भील उनसे इस प्रकार बोला-हे मुनिराज, मैं मांस-भक्षण और मदिरा-पान आदिका निश्चित रूपसे त्याग करनेके लिए समर्थ नहीं हूँ ॥१०४।। तब उसका अभिप्राय जानकर मुनिराजने उस भीलसे कहा-क्या तूने पहले कभी काकका मांस खाया, अथवा नहीं, यह मुझे बता ॥१०५।। यह सुनकर वह बोला-मैंने कभी काक-मांस नहीं खाया है । तब योगी बोले-यदि ऐसी बात है तो हे भद्र, सुख प्राप्तिके लिए तू अब उसके खाने के त्यागका नियम ग्रहण कर। क्योंकि नियमके बिना बुद्धिमानोंको कभी पुण्य प्राप्त नहीं होता है ।।१०६-१०७|| वह भील भी मुनिराजके यह वचन सुनकर सन्तुष्ट होकर बोला-'तब मुझे व्रत दीजिए', ऐसा कहकर और उनसे काक-मांस नहीं खानेका शीघ्र व्रत लेकर और मुनिको नमस्कार कर अपने घर चला गया ॥१०८॥ अथानन्तर किसी समय पापके उदयसे उसके असाध्य रोगके उत्पन्न होनेपर वैद्यने उस रोगकी शान्ति के लिए 'काक-मांस औषध है', ऐसा कहा ।।१०९।। तब काक-मांसके खानेके लिए स्वजनोंसे प्रेरित हुआ वह चतुर भील इस प्रकार बोला-अहो, कोटि भवोंमें बड़ी कठिनतासे प्राप्त व्रतको छोड़कर जो अज्ञानी अपने प्राणोंकी रक्षा करते हैं, उससे धर्मात्माओं का क्या प्रयोजन साध्य है ? क्योंकि प्राण तो भव-भवमें सुलभ हैं, किन्तु शुभवत पाना सुलभ नहीं है ।।११०-१११।। इसलिए प्राणोंका परित्याग करना उत्तम है, किन्तु व्रत-भंग करके जीवित रहना अच्छा नहीं है। व्रतकी रक्षा करते हुए प्राण-त्यागसे स्वर्ग प्राप्त होगा और व्रत-भंग करनेसे नरक प्राप्त होगा ॥११२।। ( इस प्रकार कहकर उसने औषधरूपमें भी काकमांसको खाना स्वीकार नहीं किया। रोग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। यह समाचार उसकी ससुराल पहुँचा।) तब उसके इस नियमको सुनकर सूरवीर नामका उसका साला शोकसे पीडित होकर अपने सारसपरसे चला और मार्गमें आते हए उसने महागहन वनके मध्यमें स्थित वटवृक्षके नीचे रोती हुई किसी देवीको देखकर पूछा-हे देवते, तू कौन है, और किस कारणसे रो रही है ? यह सुनकर वह बोली-हे भद्र, तुम मेरे यह वचन सुनो॥११३-११५।। मैं वनयक्षी हूँ और इस वनमें रहती हूँ। पापके उदयसे तुम्हारा खदिरसार बहनोई व्याधिसे २७ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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