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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७.७५ ] सप्तदशोऽधिकारः पापास्र वायबन्धौ द्वौ केवलं भवकारणौ । शठात्मनां च विज्ञेयौ कृत्स्नदुःखनिबन्धनौ ॥१२॥ भवतो हेतुभूतेऽत्र मुक्तः संवरनिर्जरे । साक्षाद्धेतुर्भवेन्मोक्षो ह्यनन्तसुखवारिधेः ॥६॥ इति सर्वपदार्थानां स्वामिहेतुफलादिकान् । सम्यगुक्त्वा ततः शेषप्रश्नानित्याह सोऽिखलान् ॥१४॥ सप्तदुर्व्यसनासक्ताः परस्त्रीश्रयादिकाक्षिणः । बारम्भकृतोत्साहा बहुश्रीसंग्रहोद्यताः ॥६५॥ क्रूरकर्मकराः ऋरा निर्दया रौद्रमानसाः । रौद्रध्यानरताः नित्यं विषयामिषलम्पटाः ॥६६॥ निन्द्यकर्मान्विता निन्द्या जिनशासननिन्दकाः । प्रतिकूला जिनेन्द्राणां धर्मिणां च सुयोगिनाम् ॥६॥ कुशास्त्राभ्याससंलीना मिथ्यामतमदोद्धताः । कुदेवगुरुभक्ताः कुकर्माघप्रेरकाः खलाः ॥६६॥ अत्यन्तमोहिनः पापपण्डिता धर्मदरगाः । निःशीलाश्च दुराचारा व्रतमात्रपराङ्मुखाः ॥६॥ कृष्णलेश्याशया रौद्रा महापञ्चाधकारकाः । इत्यन्यबहुदुःकर्मकारिणः पापिनोऽखिलाः ॥७॥ ये ते व्रजन्ति दुःकर्मजातपापोदयेन च । रौद्ध्यानेन वै मृत्वा नरकं पापिनां गृहम् ॥७॥ आद्यादिसप्तमान्तं स्वदुष्कर्मयोग्यमञ्जसा । विश्वदुःखाकरीभूतं निमेषार्धसुखातिगम् ॥७२।। मायाविनोऽतिकोटिल्यकमकोटिविधायिनः । परश्रीहरणासक्ता अष्टप्रहरभक्षकाः ॥७३॥ महामूर्खाः कुशास्त्रज्ञाः पशुवृक्षादिसेविनः । नित्यस्नानकराः शुद्धयै कुतीर्थगमनोद्यताः ॥७॥ जिनधर्मबहि{ता व्रतशीलादिदूरगाः । निन्द्याः कपोतलेश्याख्या आर्तध्यानकराः सदा ॥७५।। अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीवोंके पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध तीर्थंकरादिकी विभूतिके कारणभूत हैं और मिथ्यादृष्टियोंके पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध संसारके कारण हैं ॥६१।। अज्ञानी मिथ्यात्वियोंके पुण्यास्रव और पुण्यबन्ध ये दोनों ही केवल संसारके कारण और समस्त दुःखोंके निमित्त जानना चाहिए ॥६२॥ संवर और निर्जरा मुक्तिके परम्परा कारणभूत हैं और मोक्ष अनन्त सुख-सागरका साक्षात् हेतु है ।।६३॥ इस प्रकार सर्व पदार्थों के स्वामी, हेतु और फलादिको कहकर पुनः भगवान्ने गौतमके शेष प्रश्नोंका इस प्रकार उत्तर देना प्रारम्भ किया ॥६४|| जो जीव सप्त दुव्यसनोंमें आसक्त हैं, पर-स्त्री और पर-धन आदिकी आकांक्षा रखते हैं, बहत आरम्भ-समारम्भ करने में उत्साही हैं, बहत लक्ष्मी और परिग्रहके संग्रह में उद्यत हैं, क्रूर हैं, क्रूर कर्म करनेवाले हैं; निर्दयी हैं, रौद्र चित्तवाले हैं, रौद्रध्यानमें निरत हैं, नित्य ही विषयोंमें लम्पट हैं, मांस-लोलुपी हैं, निन्द्य कर्मों में संलग्न हैं, निन्दनीय हैं, जैनशास्त्रोंके निन्दक हैं, जिनेन्द्रदेव, जिनधर्म और उत्तम गुरुजनोंके प्रतिकूल आचरग करते हैं, कुशास्त्रोंके अभ्यासमें संलग्न हैं, मिथ्यामतोंके मदसे उद्धत हैं, कुदेव और कुगुरुके भक्त हैं, खोटे कर्मों और पापोंकी प्रेरणा देते हैं, दुष्ट हैं, अत्यन्त मोही हैं, पाप करने में कुशल हैं, धर्मसे दूर रहते हैं, शील-रहित हैं, दुराचारी हैं, व्रतमात्रसे पराङ्मुख हैं, जिनका हृदय कृष्णलेश्या-युक्त रहता है, जो भयंकर हैं, पाँचों महापापोंको करते हैं, तथा इसी प्रकारके अन्य बहुतसे दुष्कर्मोंके करनेवाले हैं, ऐसे समस्त पापी जीव इन दुष्कर्मों से उत्पन्न हुए पापके द्वारा, तथा रौद्रध्यानसे मरकर पापियोंके घर नियमसे जाते हैं ॥६५-७१॥ वह पापियोंका घर पहलेसे लेकर सातवें तक सात नरक हैं, वे पापी अपने दुष्कर्मके अनुसार यथायोग्य नरकोंमें जाते हैं। वे नरक संसारके समस्त दुःखोंके निधानस्वरूप हैं और उनमें अर्ध निमेष मात्र भी सुख नहीं है ॥७२॥ जो मायाचारी हैं, अति कुटिलतायुक्त कोटि-कोटि कार्यों के विधायक हैं, पर-लक्ष्मीके अपहरण करनेमें आसक्त हैं, दिन-रातके आठों पहरों में खाते-पीते रहते हैं, महामूर्ख हैं, खोटे शास्त्रोंके ज्ञाता हैं, धर्म मानकर पशुओं और वृक्षोंकी सेवा-पूजा करते हैं, शुद्धिके लिए नित्य स्नान करते हैं, कुतीर्थों की यात्रार्थ जानेको उद्यत रहते हैं, जिनधर्मसे बहिभूत है, व्रतशीलादिसे दूर रहते हैं, निन्दनीय हैं, कापोतलेश्यासे युक्त हैं, सदा आर्तध्यान करते रहते ह, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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