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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ श्री-वीरवधमानचरिते [१७.४६ ज्ञानवान् सिद्धसादृश्यो निजात्मा गुणसागरः । उपादेयो मुमुक्षूणां निर्विकल्पपदेक्षिणाम् ॥४६॥ अथवा निखिला जीवाः शुद्धनिश्चयतो बुधैः । उपादेयाः परिज्ञेयाः व्यवहारबहिःस्थितैः ॥४७॥ व्यवहारनयेनात्र हेया मिथ्यादृशोऽखिलाः । अभव्या विषयासक्ताः पापिनो जन्तवः शठाः ॥४०॥ अजीवतत्वमादेयं क्वचित्सरागदेहिनाम् । धर्मध्यानाय हेयं च विकल्पातिगयोगिनाम् ॥४९॥ पुण्यानवायबन्धौ क्वचिदादेयौ सरागिणाम् । दुःकर्मापेक्षया हेयौ मुमुक्षूणां च मुक्तये ॥५०॥ पापानवाघबन्धौ च विश्वदुःखनिबन्धनौ । अयत्नजनिती निन्द्यौ सदा हेयौ हि सर्वथा ॥५१॥ सर्वयत्नेन सर्वत्रादेये संदरनिर्जरे । मोक्षः साक्षादुपादेयो ह्यनन्तसुखकारकः ॥५२॥ इति हेयमुपादेयं ज्ञात्वा हेयं प्रयत्नतः । निहत्य निपुणाः सर्व गृह्णन्त्वादेयमूर्जितम् ॥५३॥ मुख्यवृत्त्या भवेत्कर्ता पुण्यासवायबन्धयोः । सम्यग्दृष्टिहस्थो वा व्रती सरागसंयमी ॥५४॥ पुण्यासवायबन्धौ च कुर्याद् भोगाप्तये क्वचित् । मिथ्यादृष्टिर्वपुःक्केशाद्याति मन्दोदये सति ॥५५॥ मिथ्यादृष्टिविधाता स्यात्पापानवाघबन्धयोः । मुख्यवृत्या दुराचारी कुत्सिताचारकोटिमिः ॥५६॥ संवरादित्रितत्वानां कर्तारः केवलं भुवि । जिताक्षा योगिनो दक्षा रत्नत्रयविभूषिताः ॥५७॥ भव्यानां हेतवो ज्ञेयाः पञ्चात्र परमेष्ठिनः । निर्विकल्पनिजारमानो वा संवरादिसिद्धये ॥५८॥ मिथ्यादृशो भवन्स्यत्र हेतुभूताश्च संसृतेः । पापाखवाघबन्धाय स्वेषां चान्यजडात्मनाम् ॥५२॥ हेतुभूतं परिज्ञेयमजीवतत्त्वमञ्जसा । सम्यग्दृग्ज्ञानयोनं पञ्चधाखिलधीमताम् ॥६०॥ पुण्यारवायबन्धौ हेतुमूतौ दृष्टिशालिनाम् । तीर्थेशादिविभूतेश्च मिथ्यादृशां भवप्रदौ ॥६॥ जीव-राशियोंके मध्य पाँचों ही परमेष्ठी सज्जनोंके उपादेय जानना चाहिए, क्योंकि ये समस्त भव्य जीवोंके हित करने में उद्यत हैं ॥४५|| निर्विकल्पपदके इच्छुक मुमुक्षुजनोंको ज्ञानवान्, सिद्ध-सदृश, और गुणोंका सागर ऐसा अपना आत्मा ही उपादेय है ॥४६॥ अथवा शुद्ध निश्चयनयसे, व्यवहारसे परवर्ती ज्ञानियोंको सभी जीव उपादेय जानना चाहिए ॥४७॥ व्यवहारनयकी अपेक्षा इस संसारमें सभी मिथ्यादृष्टि, अभव्य, विषयासक्त, पापी और शठ जीव हेय हैं॥४८॥ सरागी मनुष्योंको धर्मध्यानके लिए कहीं पर अजीवतत्त्व उपादेय है और विकल्प त्यागी अर्थात् निर्विकल्प योगियोंके लिए अजीवतत्त्व हेय है ॥४९।। सरागी जीवोंको क्वचित् कदाचित् पुण्यास्रव और पुण्य बन्ध दुष्कर्मों ( पापों) की अपेक्षा उपादेय हैं और मुमुक्षु जनोंको मुक्तिकी प्राप्तिके लिए वे दोनों हेय हैं ॥५०॥ अयत्न-जनित पापास्रव और पापबन्ध समस्त दुःखोंके कारण हैं, निन्द्य हैं, अतः वे सर्वथा ही हेय हैं ॥५१॥ संवर और निर्जरा सर्वयत्नसे सर्वत्र उपादेय हैं ॥५२॥ इस हेय और उपादेय तत्त्वको जानकर निपुण पुरुष प्रयत्नपूर्वक हेयका परित्याग कर सर्व उपादेय उत्तम तत्त्वको ग्रहण करें ॥५३॥ अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती गृहस्थ और सकलव्रती सरागसंयमी साधु मुख्यरूपसे पुण्यास्रव और पुण्यबन्धका कर्ता होता है ॥५४॥ और कभी मिथ्यादृष्टि जीव भी पापकर्मों के मन्द उदय होनेपर भोगोंकी प्राप्तिके लिए शारीरिक क्लेशादि सहनेसे पुण्यासव और पुण्यबन्धको करता है ॥५५।। दुराचारी मिथ्यादृष्टि करोड़ों खोटे आचरणोंके द्वारा मुख्य रूपसे पापात्रव और पापबन्धका विधाता होता है ॥५६॥ संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन तत्त्वोंके कर्त्ता संसारमें केवल जितेन्द्रिय, रत्नत्रय-विभूषित और दक्ष योगी ही होते हैं ।।५७॥ भव्य जीवोंको संवरादि तीन तत्त्वोंकी सिद्धिके लिए व्यवहारनयसे इस लोकमें पंचपरमेष्ठी कारण जानना चाहिए और निश्चयनयसे निर्विकल्प निज आत्मा ही कारण जानना चाहिए ॥५८।। मिथ्यादृष्टि जीव इस लोकमें अपने और अन्य अज्ञानी जीवोंके पापास्रव और पापबन्धके लिए संसारके कारण भूत होते हैं ।।५९॥ इस प्रकार समस्त बुद्धिमानोंको पाँच प्रकारका अजीवतत्त्व निश्चयसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका कारण जानना चाहिए ॥६०॥ दृष्टिशाली For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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