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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३.२७] त्रयोदशोऽधिकारः १२५ पवित्रमद्य गात्रं ये सफलो करसत्तमौ । पात्रदानेन मत्वेति वपुःशुद्धिं दधे नृपः ॥१३॥ कृतादिदोषनिर्मुक्तामेषणाशुद्धिमूर्जिताम् । प्रासुकान्नभवां सारां योग्यां चक्रे स निर्मलाम् ॥१४॥ इत्येतैर्विधिभेदैः सत्पुण्यार्जननिबन्धनैः । नवमिस्तक्षणं भूपो महत्पुण्यमुपार्जयत् ॥३॥ मद्भाग्येनात्र संपूर्ण पात्रदानं सुदुर्लभम् । इदं जातु विचिन्त्येति श्रद्धां दाने परां व्यधात् ॥१६॥ स्वशक्ति प्रकटीकृत्य पात्रदाने स उद्ययौ । श्रीरत्नवृष्टिकीादीस्तद्दानान्मुक्तयेऽत्यजत् ॥१७॥ शुश्रूषाज्ञायरागाद्यस्तद्भक्तितत्परोऽजनि । त्यक्त्वाखिलान्य कार्याणि धर्मसिद्धये नृपोत्तमः ॥१८॥ अयं प्रासुक आहारो दानवेलेयमूर्जिता। विधिनानेन दान देयं ज्ञानमाप चेत्यसौ ॥१९॥ बहुपवाससंकेशान् सहतेऽसौ कथं यमी। विचार्यति कृपां सोधात्परया क्षमया समम् ।।२०॥ इति दातृणान् सप्तमहाफलकरान् परान् । गृहस्थानां तदा राजा स्वीचकार विशारदः ॥२१॥ ततस्तस्मै सुपात्राय हिताय दातृदेहिनाम् । त्रिशुद्ध्या विधिना भक्त्या क्षीरान्नदानमूर्जितम् ॥२२॥ प्रासुकं मधुरं भूपः सरसं दोषदूरगम् । तपोवृद्धिकरं शुद्धं ददौ श्चत्तड्विनाशकम् ॥२३॥ तदा तदानतस्तुष्टा निर्जराः शुभयोगतः । राजाङ्गणे नभोभागादत्नवृष्टिं परां व्यधुः ॥२४॥ अनय॑मणिकोटीनां स्थूलैर्धारावर्घनैः । अखण्डैः पुष्पगन्धोदकमिश्च तमोपहैः ॥२५॥ दुन्दुभीनां निनादा जजम्भिरे गगने तदा । घोषयन्त इवानेका दातुः पुण्यं यशो महत् ॥१६॥ परं पात्रमिदं दातुस्तारकं भी भवाम्बुधेः । अयं दाता महान धन्यो यदुहमागतो जिनेट ॥२७॥ उसने अपनी वचनशुद्धि की ॥१२।। आज मेरा शरीर आपके चरण-स्पर्शसे पवित्र हो गया, पात्रदानसे मेरे ये दोनों श्रेष्ठ हाथ सफल हो रहे हैं, ऐसा मानकर उस राजाने कायशुद्धि की ॥१३।। पुनः उसने यह कहते हुए आहारशुद्धि प्रकट की कि यह भोजन कृत आदि दोषोंसे रहित है, प्रासुक अन्नसे निष्पन्न हुआ है, सार, योग्य और निर्मल है ॥१४॥ इस प्रकार उत्तम पुण्यके उपार्जनके कारणभूत इन नव प्रकारके भक्तिभेदोंके द्वारा राजाने उस समय महान् पुण्यका उपार्जन किया ।।१५।। मेरे भाग्यसे आज यहाँ पर यह अत्यन्त दुर्लभ सम्पूर्ण पात्र दानका सुअवसर प्राप्त हुआ है, जो कि अन्यत्र कदाचित् सम्भव नहीं, ऐसा विचार कर उस राजाने दान देने में परम श्रद्धा प्रकट की ॥१६॥ अपनी शक्तिको प्रकट करके वह पात्रदानमें उद्यत हुआ । मुक्तिके लिए दान देनेके भावसे उसने लौकिक लक्ष्मी, रत्नवृष्टि और कीर्ति आदि की इच्छाको छोड़ दिया ॥१७|| उस समय धर्म-सिद्धिके लिए अन्य समस्त कार्योंको छोड़कर शुश्रूषा, आज्ञा-पालन, पुण्य-राग आदिके द्वारा वह उत्तम राजा भगवान्की भक्ति में तत्पर हुआ ॥१८॥ यह आहार प्रासुक है, यह उत्तम दान-वेला है, इस विधिसे मुझे दान देना चाहिए, इस प्रकारके आहारदान देनेके ज्ञानको वह राजा प्राप्त हुआ ॥१९|| संयमी साधु अनेक उपवास-जनित क्लेशको कैसे सहन करते हैं? इस प्रकार विचार कर उस राजाने परम क्षमाके साथ कृपाको धारण किया ॥२०॥ इस प्रकार गृहस्थोंके महाफल-कारक इन उत्तम सात दातारके गुणोंको उस विद्वान् राजाने अंगीकार किया ॥२१।। तत्पश्चात् उस राजाने वीर प्रभु-जैसे उत्तम सुपात्रके लिए दाताजनोंके हितार्थ मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक विधिसे भक्तिके साथ उत्तम, प्रासुक, मधुर, सरस, निर्दोष, तपकी वृद्धि करनेवाला और क्षुधा-तृषाका विनाशक क्षीरानका उत्कृष्ट दान दिया ॥२२-२३।। उस समय उस दानसे सन्तुष्ट ए देबोंने पण्ययोगसे राजाके अंगण में अन्धकार-नाशक अनमोल करोडों मणियोंकी स्थल, अखण्ड. सघन. धारा-समहोंसे. फलोंकी सगन्धिसे मिश्रित जलवर्षा के साथ आकाशसे भारी रत्नवर्षा की ।।२४-२५।। उस समय दाताके महापुण्य यशकी घोषणा करते हुए अनेक दुन्दुभियोंका शब्द आकाशमें व्याप्त हो गया ॥२६॥ अहो, दाताको संसार-समुद्रसे तारनेवाले यह जिनेन्द्र परम पात्र हैं, और यह महान् दाता धन्य है, कि जिसके घर जिनराज पधारे For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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