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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रयोदशोऽधिकारः निःसङ्गं विगताबाधं मुक्तिकान्तासुखोत्सुकम् । ध्यानारूढं महावीरं वन्दे वीरगुणाप्तये ॥१॥ अथैषोऽतीव शक्तोऽपि षण्मासादितपोविधौ । तथाप्यन्यमुनीनां सच्चर्यामार्गप्रवृत्तये ॥२॥ पारणाहनि योगीन्द्रो प्रतिधैर्यबलाधिकः । निरोहोऽत्यन्तभोगादौ मति चक्रे तनुस्थितौ ॥३॥ ततो ब्रजन् प्रयत्नेन स्वीर्यापथात्तलोचनः । निर्धनोऽयं धनी चैष मनाग हृदीत्यचिन्तयन् ॥४॥ भावयन् त्रिकसंवेगं कुर्वस्तोष सुदानिनाम् । कृतादिदूरमाहारं शुद्धमन्वेषयन् स्वयम् ॥५॥ नातिमन्दं न शीघ्रं च न्यसन् पादं दयाधीः । क्रमादसौ पुरं रम्यं प्राविशत्कूलसंज्ञकम् ॥६॥ तत्र कुलाभिधो राजा वीक्ष्य पात्रोत्तमं जिनम् । निधानमिव दुष्प्राप्यं प्राप्यानन्दं परं हृदि ॥७॥ त्रिःपरीत्य प्रणम्याशु मृत्वाङ्गपञ्चकं भुवि । तिष्ठ तिष्ठ मुदेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह धर्मधीः ॥८॥ ततस्तमुपवेश्योच्चैः स्थान प्रासुकमूजितम् । तत्पादपङ्कजी शुद्धजलैः प्रक्षाल्य तज्जलम् ॥९॥ पवित्रमभिवन्द्यानु प्रपूज्याष्टविधार्चनैः । भक्तिभारेण भूपोऽसौ ननाम शिरसा ततः ॥१॥ अद्याहं सुकृतीभूतो गार्हस्थ्यं सफलं च मे । पात्रलाभाद्विचिन्त्येति मनःशुद्धि चकार सः ॥११॥ धन्योऽहं देव नाथाद्य संपवित्रीकृतस्त्वया । स्वागमेन गृहश्चेदमुक्त्वा शुद्धिं व्यधाद् गिरः ॥१२॥ सर्व प्रकारके परिप्रहसे रहित, बाधाओंसे रहित, मुक्तिकान्ताके सुख पानेके लिए उत्सुक और ध्यानावस्थित श्री महावीरको मैं वीर-जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए वन्दन, करता हूँ ॥१।। अथानन्तर यह महावीर स्वामी छहमासी उपवास आदि तपोंके करने में अतीव समर्थ थे, तो भी अन्य मुनियोंको उत्तम चर्यामार्ग बतलानेके लिए पारणाके दिन धृति और धैर्यसे बलशाली, शरीर-भोगादि में अत्यन्त निःस्पृह उन योगीन्द्र महावीरने शरीर स्थितिमें बुद्धि की अर्थात् गोचरीके लिए उद्यत हुए ॥२-३।। तब प्रयत्नके साथ उत्तम ईर्यापथपर दृष्टि रखकर 'यह निधन है, और यह धनी है' ऐसा मनमें जरा भी चिन्तवन नहीं करते, संसार, शरीर और भोग इन तीनोंमें संवेग भाते, उत्तम दानियोंको सन्तोष करते, कृत, कारित, उद्दिष्ट आदि दोषोंसे रहित शुद्ध आहारका स्वयं अन्वेषण करते, न अति मन्द और न अति शीघ्र पादविन्यास रखते वे दयाई चित्त महावीर प्रभु क्रमसे विचरते हुए कूल नामक रमणीक पुरमें पहुँचे ॥४-६।। वहाँपर कूल नामक धर्मबुद्धि राजाने सर्व पात्रोंमें श्रेष्ठ वीर जिनको देखकर दुष्प्राप्य निधानको पानेके समान हृदयमें परम आनन्द मानकर उन्हें तीन प्रदक्षिणा देकर और शीघ्र पंच अंगोंको भूमिपर रखते हुए नमस्कार करके 'हे भगवन, तिष्ठ तिष्ठ' ऐसा कहकर अतिहर्षित होते हुए उन्हें पडिगाहा ।।७-८।। तत्पश्चात् उस राजाने भगवानको प्रासुक, श्रेष्ठ उच्चस्थान पर बैठाकर शुद्ध जलसे उनके चरण कमलोंको प्रक्षालन करके उस जलको पवित्र मानकर उसे मस्तकपर लगाया और भक्तिभारसे आठ द्रव्योंके द्वारा उनकी पूजा की उन्हें नमस्कार किया ।।९-१०।। पुनः उसने 'हे भगवन् , आपके पदार्पणसे मैं पवित्र हो गया हूँ,' मेरा यह गार्हस्थ्य जीवन सफल हो गया है, पात्रके लाभसे मैं धन्य हूँ, इस प्रकार विचार करते हुए अपनी मनःशुद्धि की ॥११॥ पुनः उसने 'हे देव, मैं धन्य हूँ, हे नाथ, आज आपने मझे पवित्र कर दिया और आपके आगमनसे यह घर पवित्र हो गया ऐसा कहकर मो For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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