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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [१२.४३ततोऽसौ शिविकां दिव्यां दोप्रां चन्द्रप्रभाभिधाम् । सुरेन्द्रनिर्मितां देवः संयमश्रीसुखोत्सुकः ॥४३॥ आरुरोह मुदा शक्रदत्तहस्तावलम्बनः । प्रतिज्ञामिव दीक्षायां त्यक्त्वा बन्धून् श्रिया समम् ।।४४॥ तदारूढो जगन्नाथो विश्वाभरणभूतिभिः । वरोत्तम इवाभासीत्तपोलक्ष्म्याः सुरावृतः ॥४५॥ आदौ तां शिविकामुहुः पदानि सप्त भूमिपाः । ततः खगाधिपा ब्योम्नि निन्युः सप्तक्रमान्तरम् ॥४६॥ स्वस्कन्धारोपितां कृत्वा ततोऽमुं त्रिजगत्सुराः । खमुत्पेतु तं भूत्या धर्मरागरसोत्कटाः ॥४७॥ अहो प्रभोः सुमाहात्म्यं वर्ण्यते किं पृथक्तराम् । तदास्य भुवनाधीशा आसन् युग्यकवाहिनः ॥४८॥ पुष्पवृष्टिं मुदा चक्रुः परितस्तं दिवौकसः । ववौ वातकुमारोत्थो मरुद् गङ्गाकणान् किरन् ।॥४९॥ प्रस्थानमङ्गलान्यस्य प्रपेटुर्देववन्दिनः । बयः प्रयाणभेर्यश्च सुरैरास्फालितास्तदा ।।१०।। मोहाद्यरिजयोद्योगसमयोऽयं जगत्पतेः । इति शक्राज्ञया देवा घोषयामासुरेव तम् ।।५१।। जयेश नन्द वर्धस्वात्रेति कोलाहलं महत् । भर्तुरो खमारुध्य चक्रुर्हष्टाः सुरासुराः ॥५२।। प्रध्वनन्ति नभो व्याप्य देवेन्द्रानककोटयः । नटन्ति सुरनर्तक्यो विचित्रकरणादिभिः ॥५३॥ मोहारिविजयोद्भूतयशोगीतान्यनेकशः । गायन्ति शर्मदानस्य किन्नर्योऽतिकलस्वनाः ॥५४॥ इतोऽमुतः प्रधावन्ति प्रमोदभरनिर्मराः । प्रचलन्ति खमाच्छाद्य ध्वज छत्रादिकोटयः ॥५५।। पद्मार्पितकरा लक्ष्मीबजते पुरतो विभोः । साधं समङ्गलार्धाभिर्दिक्कुमारीभिरुद्यताः ॥५६॥ इत्याविष्कृतमाहात्म्यो वीज्यमानः प्रकीर्णकैः । श्वेतछत्राङ्कितो मूर्ध्नि देवेन्द्रः परितो वृतः ॥५॥ तत्पश्चात् देवेन्द्र-रचित, चन्द्रप्रभा नामकी देदीप्यमान दिव्य पालकीपर संयमरूपी लक्ष्मीके सुख प्राप्त करनेके लिए उत्सुक, और इन्द्रके द्वारा दिया गया है हाथका सहारा जिनको ऐसे श्री वीर जिनदेव राज्यलक्ष्मीके साथ सब बन्धुजनोंको छोड़कर दीक्षामें प्रतिज्ञाबद्धके समान चढ़े ॥४३.४४॥ उस समय समस्त आभूषणोंकी विभूतिसे युक्त और देवोंसे आवृत वे जगत्के नाथ महावीर प्रभु उस पालकीपर विराजमान होकर ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो तपोलक्ष्मीको वरनेके लिए जानेवाले उत्तम वर ही हों ।।४५।। सर्व प्रथम उस पालकीको राजाओंने सात पद तक उठाया, तत्पश्चात् सात पद तक विद्याधरोंने उठाया और उसके पश्चात् धर्मानुरागके रससे परिपूरित वे सभी देवगण उस पालकीको अपने कन्धोंपर आरोपण करके बड़ी विभूतिके साथ शीघ्र आकाश में उड़कर ले चले ॥४६-४७॥ अहो, उस प्रभुके महा. माहात्म्यका क्या अलग वर्णन किया जा सकता है, जिसकी कि पालकीको उठानेवाले लोकनायक इन्द्रादिक हों॥४८॥ उस समय देवोंने आकाशसे फूलोंकी वर्षा की और वायुकुमार देवोंने गंगाके जलकणोंसे युक्त सुरभित समीर प्रवाहित की ॥४९।। उस समय देव वन्दीजनोंने भगवान्के अभिनिष्क्रमण कल्याणक सम्बन्धी मंगल पाठ पढ़े, और देवोंने अनेक प्रयाणभेरियोंको बजाया ॥५०॥ 'जगत्पतिके मोहादि शत्रुओंको जीतनेके उद्योगका यह समय है' इस प्रकारसे इन्द्रकी आज्ञासे उस समय देवोंने उच्च स्वरसे घोषणा की ।।५१।। उस समय स्वामीके आगे हर्षित हुए सुरासुरोंने 'हे ईश, तुम्हारी जय हो, नन्दो, व?,' इत्यादि शब्दोंको बोलते हुए आकाशको अवरुद्ध कर महान् कोलाहल किया ॥५२॥ उस समय देवेन्द्रोंके कोटिकोटि बाजे आकाशको व्याप्त करते हुए बजने लगे और नाना प्रकारके हाव-भावोंके साथ देव नर्तकियाँ नृत्य करने लगीं। किन्नरियाँ अति मधुर स्वरसे प्रभुके मोहशत्रुके विजयको प्रकट करनेवाले अनेक प्रकारके सुखद यशोगीत गाने लगीं ॥५३-५४॥ उस समय प्रमोदके भारसे भरे हुए देवगण इधरसे उधर दौड़ रहे थे, और कोटि-कोटि ध्वजा-छत्रादिसे आकाशको आच्छादित करते हुए चल रहे थे, ॥५५॥ प्रभुके आगे कमलोंको हाथमें लिये हुए लक्ष्मीदेवी मंगल द्रव्योंको धारण करनेवाली दिक्कमारियोंके साथ-साथ आगे चल रही थी॥५६॥ देवेन्द्रोंके द्वारा जिनके ऊपर चँवर ढोरे जा रहे हैं और मस्तकपर श्वेत छत्र लगाया गया है, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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