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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१२.१५ यतस्त्वत्तः प्रभो प्राप्य धर्मपोतं सुदुर्लभम् । भवाब्धिमुत्तरिष्यन्ति केचिद्भव्याः सुदुस्तरम् ॥१५॥ केचिद्रत्नत्रयं लब्ध्वा भवद्धर्मोपदेशतः । तस्फलेन च यास्यन्ति सर्वार्थसिद्धिमूर्जिताम् ।।१६।। मवद्वोंऽशुभिः केचिन्मिथ्याज्ञानतपश्चयम् । निर्धूय विश्वतत्त्वार्थान् द्रक्ष्यन्ति च शिवात्मजाम् ॥१७॥ त्वत्तोऽत्राभीष्टसंसिद्धिनिखिला सुधियां भुवि । भविष्यति न सन्देहः स्वामिन् स्वर्मोक्षशर्म च ॥१८॥ मोहपङ्के निमग्नानां सतां हस्तावलम्बनम् । त्वं दास्यसि विभो नूनं धर्मतीर्थप्रवर्तनात् ॥१९॥ त्वद्वाक्यजल देनाप्य वैराग्य वज्रमद्भुतम् । शतचूर्णीकरिष्यन्ति बुधा मोहाद्विमर्जितम् ॥२०॥ भवत्तत्त्वोपदेशेन पापिनः पापमञ्जसा । कामिनः कामश च हनिष्यन्ति न संशयः ॥२१॥ केचित्वदाक्तिका नाथ त्वत्पादाम्बुजसेवनात् । स्वीकृत्य दृग्विशुनुयादोन भविष्यन्ति भवत्सभाः ॥२२॥ अद्य मोहाक्षशचौघास्ते कम्प्यन्ते जगद्विषः । संवेगासितं वीक्ष्य त्वां स्वमृत्यादिशङ्कया ॥२३।। यतस्त्वं दुर्जयारातीन् क्षमो जेतुं च हेलया। पर षहभटांस्तीक्ष्णान् स्वान्येषां सुभटोत्तम ॥२४॥ अतो धीर कुरूद्योगं मोहाक्षायरिसंजये। विश्वभव्योपकाराय घातिकारिघातने ॥२॥ यतोऽयं ते समायातः कालः सन्मुखमूर्जितः । तपः कतु विधीन हन्तुं नेतुं भव्यान् शिवालयम् ॥२६॥ अतः स्वामिन् नमस्तुभ्यं नमस्ते गुणसिन्धवे । नमस्ते मुक्तिकान्ताप्त्यै प्रोद्यताय जगद्धित ॥२७॥ निःस्पृहाय नमस्तुभ्यं स्वाङ्गमोगसुखादिषु । सस्पृहाय नमस्तुभ्यं मुक्तिस्त्रीसुखसाधने ॥२॥ विजयका उद्योग करनेके इच्छुक आपने यह जगत्के सन्तजनोंके लिए उत्तम बन्धु-कर्तव्य पालन करनेका विचार किया है ॥१४॥ हे प्रभो, आपसे अति दुर्लभ धर्मपोतको पा करके कितने ही भव्य जीव इस दुस्तर संसार-सागरके पार उतरेंगे, कितने ही जीव आपके धर्मोपदेशसे रत्नत्रयको पाकर उसके फलसे अति उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धिको जायेंगे ॥१५-१६।। कितने ही जीव आपकी वचन-किरणोंसे मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार-पुंजका विनाश कर और समस्त तत्त्वार्थको जाकर शिवरमाका मुख देखेंगे॥१७|| संसारमें सुधीजनोंको आपसे समस्त अभीष्ट अर्थकी सिद्धि होगी और हे स्वामिन् , वे स्वर्ग एवं मोक्षके सुखको प्राप्त करेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥१८॥ हे प्रभो, मोहरूपी कीचड़में निमग्न पुरुषोंको धर्मतीर्थका प्रवर्तन कर आप निश्चयसे उन्हें हस्तावलम्बन देंगे ॥१९॥ आपके वाक्यरूपी मेघसे अद्भुत वैराग्यरूपी वज्र पा करके पण्डित लोग महान मोहरूपी पर्वतके सैकड़ों खण्ड करके चूर्ण कर देंगे ॥२०॥ आपके तत्त्वोपदेहासे पापीजन अपने पापोंको और कामीजन अपने काम-शत्रुको मारेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है ।।२१।। हे नाथ, कितने ही आपके भक्तजन आपके चरण-कमलोंकी सेवा करके और सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि आदि कारणोंको स्वीकार करके आपके समान होंगे ||२२|| हे प्रभो, जगत्का अकल्याण करनेवाले मोह और इन्द्रिय शत्रुओंका समूह आपको संवेगरूप खड्ग धारण किये हुए देखकर अपने मरण आदिकी शंकासे कम्पित हो रहा है ।।२३।। क्योंकि हे सुभटोत्तम भगवन् , आप अपने और दूसरोंके दुःसह परीषह भटरूप दुर्जय शत्रुओंको क्रीडामात्रसे जीतने के लिए समर्थ हैं ।२४।। अतएव हे धीर-वीर प्रभो, मोह और इन्द्रिय शत्रुओंके जीतने के लिए, घातिकर्मो के नाश करनेके लिए तथा संसारके भव्य जीवोंके उपकार करने के लिए आप उद्योग कीजिए॥२५॥ हे भगवन्, यतः आपके सम्मुख यह उत्तम अवसर तप करने के लिए, कौंको नाश करने के लिए और भव्यजीवोंको शिवालय ले जाने के लिए उपस्थित हुआ है, अनः हे स्वामिन् , आपके लिए नमस्कार है, आप गुणोंके समुद्र हैं, अतः आपको नमस्कार है, हे जगत्-हितकारिन , मुक्तिकान्ताकी प्राप्तिके लिए आप उद्यत हुए हैं, अतः आपको नमस्कार है ॥२६-२७|| आप अपने शरीर में और इन्द्रिय-भोगोंके सुखादिमें निःस्पृह हैं, अतः आपके लिए नमस्कार है। आप मुक्तिस्त्रीके सुख साधनेमें सस्पृह हैं, इसलिए For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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