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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११.१२९ ] एकादशोऽधिकारः १११ मतेर्मन्दकषायित्वं तस्मान्मिथ्यात्वहीनता। ततोऽहो विनयाद्याः सद्गुणा अत्यन्तदुर्लभाः ॥११६॥ तेभ्योऽप्यतीव दुष्प्रापा सामग्री धर्मकारिणी । देवशास्त्रयतीशानां कल्पवल्लीव देहिनाम् ।। ११७॥ सामग्रया दृग्विशुद्धिश्च ज्ञानं वृत्तं तपोऽनघम् । अलभ्यं वरमृत्यादीनि सतां सुलभानि न ॥११८ इत्याद्यखिलसामग्री लब्ध्वा ये साधयन्त्यहो । हत्वा मोह विदो मुक्तिं तैर्वाधिः सफलः कृतः ॥१९॥ तामाप्य धर्ममोक्षादौ प्रमादं ये प्रकुर्वते । निमज्जन्ति भवाब्धौ ते च्युतपोता जना यथा ॥१२०॥ मत्वेतीह महान् यत्नो मुक्ती धर्मादिसाधने । मरणे चोत्तमे दक्षः कर्तव्योऽत्र भवे भवे ॥१२॥ (बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा ") मवाब्धौ पतनाजीवान् य उद्धत्य शिवालये। जिनेन्द्रादिपदे वाशु धत्ते स धर्म उत्तमः ।। १२२॥ सत्क्षमा मार्दवोऽप्याजवं सत्यं शौचमेव हि । संयमोऽनु तपस्स्याग आकिंचन्यममैथुनम् ॥१२३॥ अमूनि प्रोतमान्यन्त्र दशैव लक्षणान्यपि । महाधर्मस्य बीजानि विधेयानि तदर्थिभिः ॥१२॥ यतोऽत्रैतै प्रजायेत महाधर्मः शिवप्रदः । हन्ता दुष्कर्मदुःखानां विश्वशनिबन्धनः ॥१२५॥ तथा रत्नत्रयाचारैर्मूलोत्तरगुणवजैः । तपसा जायते धर्मो यतीनां मुक्तिसौख्यकृत् ॥१२६॥ धर्मेण सुलभाः सर्वास्त्रैलोक्यस्थाः सुसंपदः । निजाः स्त्रिय इवायान्ति स्वयं प्रीत्यात्र धर्मिणः ॥२७॥ आकृष्टा धर्ममन्त्रेण ददात्यालिङ्गानं स्वयम् । मुक्तिस्त्री धर्मिणां नूनं का कथामरयोषिताम् ॥१२८॥ यस्किंचिद् दुर्लभं लोके महाध्यं सुखसाधनम् । तत्सर्व धर्मतः पुंसां संपद्येत पदे पदे ॥१२९।। दुर्लभ निर्मल बुद्धिका पाना है, जैसे कि रत्नोंकी खानिका पाना बहुत दुर्लभ है ॥११४-११६।। इन सबसे भी अत्यधिक दुर्लभ देव शास्त्र गुरुओंका समागम और धर्मकारिणी सामग्रीका पाना है, जैसे कि दीन प्राणियोंको कल्पलताका पाना दुर्लभ है ॥११७।। उक्त धर्म-सामग्रीसे भी अधिक कठिन दर्शनविशद्धि, निर्मल ज्ञान, चारित्र, तप और समाधिमरण आदिकी प्राप्ति है। किन्तु जो सञ्चारित्रधारक सन्त पुरुष हैं, उन्हें यह सब मिलना सुलभ है ॥११८।। इत्यादि समस्त सामग्रीको पा करके जो ज्ञानी पुरुष मोहका नाश कर मुक्तिका साधन करते हैं, वे ही बोधिकी प्राप्तिको सफल करते हैं ॥११९।। उक्त सर्व सामग्री पा करके भी जो धर्म और मोक्षादिकी साधनामें प्रमाद करते हैं, वे जहाजसे गिरे हुए मनुष्यके समान संसार-समुद्र में डूबते हैं ।।१२०।। ऐसा जानकर चतुर पुरुषोंको मुक्तिके लिए धर्मादिके साधनेमें भव-भवमें उत्तम मरणकी प्राप्ति में महान् यत्न करना चाहिए ॥१२१।। (बोधिदुर्लभभावना ११) जो संसार-समुद्रमें गिरनेसे जीवोंका उद्धार करके शिवालयमें अथवा तीर्थंकर-चक्रवर्ती आदिके पदोंमें शीघ्र स्थापित करे, वही उत्तम धर्म है ।।१२२।। वह धर्म उत्तम क्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन उत्तम दश लक्षण रूप धमके इच्छुक जनोंको महाधम केये उत्तम बीज धारण करना चाहिए ॥१२३-१२४|| क्योंकि इन बीजोंके द्वारा ही इस लोकमें मोक्ष-दाता, दुष्कर्म-जनित दुःखोंका नाशक और सर्व सुखोंका कारणभूत महान् धर्म उत्पन्न होता है ॥१२५|| तथा रत्नत्रयके आचरणसे, मूलगुणों और उत्तरगुणोंके समुदायसे तथा तपसे मुक्तिसुखका करनेवाला मुनियोंका धर्म ' होता है ॥१२६।। धर्म के द्वारा तीन लोकमें स्थित सभी उत्तम सम्पदाएँ सरलतासे प्राप्त होती हैं और वे धर्मात्माके पास प्रीतिसे अपनी स्त्रियोंके समान स्वयं समीप आती हैं ॥१२७॥ धर्मरूपी मन्त्रसे आकृष्ट हुई मुक्तिरूपी स्त्री जब धर्मात्मा पुरुषको निश्चयसे स्वयं ही आकर आलिंगन देती है, तब अन्य देवांगनाओंकी तो कथा ही क्या है ॥१२८।। लोकमें जो कुछ दुर्लभ और बहुमूल्य सुखसाधन हैं, वे सब धर्मसे पुरुषोंको पद-पदपर प्राप्त होते हैं ॥१२९।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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