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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११० श्री वीरवर्धमानचरिते [ ११.१०३ सप्तरज्ज्वन्तरे स्वर्गाः सौधर्मायाश्च षोडश । नव ग्रैवेयकाद्याः स्युरूर्ध्वलोके सुखाकराः ॥ १०३ ॥ कल्पकल्पातिगेष्वेव त्रिषष्टिपटलान्यपि । लक्षाश्चतुरशीतिश्च नवतिः सप्तसंयुताः ||१०४ ॥ सहस्राणि त्रयोविंशतिः संख्येति जिनैर्मता । सर्वेषां स्वर्विमानानां विश्वशर्मनिबन्धिनाम् ॥ १०५ ।। भवे ये प्राक्तने दक्षास्तपोरत्नत्रयाङ्किताः । महाधर्मविधातारश्चार्हन्निर्ग्रन्थभाक्तिकाः ॥१०६॥ जितेन्द्रियाः समाचाराः प्राप्ता देवगतिं हि ते । भुञ्जन्ति विविधं तेषु सुखं वाचातिगं महत् ॥ १०७ ॥ दिन्यस्त्रीभिः समं नित्यं चाप्सरोनृत्यलोकनैः । स्वेच्छया क्रीडनैर्भोगैर्गीतादिश्रवणैः परैः || १०८ ॥ लोकाग्रेऽस्ति विनमया मोक्षशिला परा । नरक्षेत्रप्रमा वृत्ता स्थूला द्वादशयोजनैः || १०९ || अनन्तसुखसंलीनाः सिद्धा अन्तातिगाः पराः । ज्ञानाङ्गाः सन्ति ये तस्यां वन्दे तद्गतयेऽत्र तान् ॥ ११०॥ इति लोकत्रयं ज्ञात्वा सुखदुःखोभयाश्रितम् । रागं विहाय सर्वत्र तदग्रस्थं शिवालयम् ॥ १११ ॥ अनन्तगुणशर्माढ्यं नित्यं शर्मार्थिनः परम् । रत्नत्रयतपोयोगैर्भजताशु प्रयत्नतः ॥ ११२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( लोकानुप्रेक्षा १० ) अत्यन्तदुर्लभो बोधिश्चतुर्गतिषु संततम् । भ्रमतां कर्मकर्तॄणां निधिवच्च दरिद्विणाम् ॥ ११३ ॥ मानुष्यं दुर्लभं चादावन्धौ चिन्तामणिर्यथा । तस्मादप्यार्यखण्डं च खण्डादप्युत्तमं कुलम् ||११४ ॥ कुलादीर्घायुरप्राप्यं ततः पञ्चाक्षपूर्णता । दुर्लभा रत्नखानीव पञ्चाक्षान्निर्मला मतिः ॥ ११५ ॥ विमानोंमें जिनालय हैं और उनमें स्वर्ण-रत्नमयी जिनप्रतिमाएँ हैं । इन सबको मैं पूजा-भक्तिके साथ नमस्कार करता हूँ || १०२ || मध्यलोकके ऊपर ऊर्ध्वलोक में सात राजुके भीतर सौधर्मादिक सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक और नौ अनुदिशादि विमान हैं, वे सभी सुख के आकार हैं || १०३ || स्वर्गलोकके उक्त कल्प और कल्पातीत विमानोंके तिरसठ पटल हैं । उनके सर्व विमानोंकी संख्या चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस जिनदेवोंने कही है । ये सभी सांसारिक सुखोंको देनेवाले हैं ।। १०४-१०५ ।। जो चतुर पुरुष पूर्वभव में रत्नत्रय धर्मयुक्त तपश्चरण करते हैं, महान धर्मके विधायक हैं, अर्हन्तदेव और निर्ग्रन्थ गुरुओंके भक्त है, इन्द्रिय-विजयी और उत्तम सदाचारी हैं, वे देवगतिको प्राप्त होकर वहाँपर वचनोंके अगोचर नाना प्रकार के महान् सुखोंको दिव्य स्त्रियोंके साथ अप्सराओंके नृत्य देखकर, उनके दिव्य गीतादि सुनकर और उनके साथ अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए भोगते हैं ॥१०६-१०८ ।। लोकके अग्रभागपर देदीप्यमान रत्नमयी सिद्धशिला है, जो मनुष्य क्षेत्र प्रमाण पैंतालीस लाख योजन विस्तृत गोलाकार है और बारह योजन मोटी है || १०९ || उस सिद्धशिलाके ऊपर अनन्त परम सुखमें लीन अनन्त सिद्ध भगवन्त विराजमान हैं, वे सभी ज्ञानशरीरी हैं । उस सिद्धगतिको पानेके लिए मैं उनकी वन्दना करता हूँ ।। ११० ।। इस प्रकार सुख और दुःख इन दोनोंसे युक्त तीनों लोकोंका स्वरूप जानकर और सबसे राग छोड़कर लोकके अग्रभागपर अवस्थित अनन्त सुख से युक्त परम शिवालयकी सुखार्थी जन रत्नत्रय और तपोयोग से शीघ्र ही प्रयत्न पूर्वक आराधना करें ।। १११-११२।। ( लोकानुप्रेक्षा १० ) संसारमें चारों गतियोंके भीतर निरन्तर परिभ्रमण करते हुए कर्मोंके करनेवाले प्राणियोंको बोधिकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, जिस प्रकार कि दरिद्रियोंको निधिकी प्राप्ति अति कठिन है ||११३ || सबसे पहले तो संसार - समुद्र में पड़े हुए जीवोंको मनुष्यभव पाना चिन्तामणि रत्नके समान दुर्लभ है, उससे भी अधिक कठिन आर्य खण्डका पाना है और उससे भी अधिक कठिन उत्तम कुलकी प्राप्ति है । उत्तम कुलसे भी अधिक कठिन दीर्घ आयु पाना है, उससे भी अधिक कठिन पाँचों इन्द्रियोंकी परिपूर्णता है । उस पंचेन्द्रियपरिपूर्णता से भी बहुत For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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