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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० श्री-वीरवर्धमानचरिते [१०.८८स्वल्पायुषो दिनान्यत्र गमवन्ति तपो विना । ये ते सीदन्त्यही मृढा यमेन ग्रसिता भुवि ॥८॥ चित्रं त्रिज्ञाननेत्रोऽहं मूढवत्संयमादृते । इयन्तं कालमात्मज्ञः स्थितो गेहाश्रम, वृथा ।।८९॥ तेन ज्ञान त्रयेणात्र किं साध्यं येन नेक्ष्यते । कर्मादेः स्वं पृथक्कृत्वा मुक्तिश्रीमुखपङ्कजम् ॥१०॥ ज्ञानस्य सत्फलं तेषां ये चरन्ति तपोऽनघम् । अन्येषां विफलः केशो ज्ञानाभ्यासादिगोचरः ॥११॥ सचक्षुर्य: पतेकूपे तस्य चक्षुर्निरर्थकम् । यथा ज्ञानी पतेन्मोहकूपे यस्तस्य तद् वृथा ॥१२॥ अज्ञानेन कृतं पापं यत्तज्ज्ञानेन मुच्यते । ज्ञानेन यत्कृतं पापं तदत्र केन मुच्यते ॥१३॥ इति मत्वा क्वचित्पापं न कार्य ज्ञानशालिभिः । प्राणात्ययेऽपि संप्राप्ते मोहादिनिन्द्यकर्मभिः ॥९॥ यतो मोहेन जायेते रागद्वेषो हि दुर्धरौ । ताभ्यां धोरतरं पापं पापेन दुर्गती चिरम् ॥९५|| परिभ्रमणमत्यर्थं तस्माद्वाचाभगोचरम् । लभन्ते प्राणिनो दुःखं पराधीनाः सुखच्युताः ॥९६॥ मत्वेति ज्ञानिभिः पूर्व हन्तव्यो मोहशात्रवः । स्फुरद्वैराग्यखगन विश्वानर्थकरः खलः ॥२७।। सोऽप्यहो शक्यते जातु न हन्तं गृहमेधिभिः। तस्मात्तद्दरतस्त्याज्यं पापवद्-गृहबन्धनम् ॥९॥ सर्वानर्थकरीभूतं बालत्वेऽपि विचक्षणः । उन्मत्तयौवनत्वे वा धोरमुक्त्याप्तये यतः ॥१९।। त एव जगतां पूज्या महान्तो धैर्यशालिनः । निघ्नन्ति यौवनस्था ये स्मरारि सुष्टु दुर्जयम् ॥१०॥ यतो यौवनभपेन प्रेरिता मदनादयः । पञ्चाक्षतस्करा यान्ति विक्रियां परमां भुवि ।।१०१॥ आयाते मन्दतां यौवनराजे तेऽपि यान्त्यहो। मन्दतां स्वाश्रयाभावाजरापाशेन वेष्टिताः ॥१०२॥ एक कला भी बिताना योग्य नहीं है ।।८७|| अहो, अल्प आयुके धारक जो मनुष्य तपके बिना जीवन के दिनोंको व्यर्थ गवाते हैं, वे मूढजन यमराजसे ग्रसित होकर संसारमें दुःख पाते हैं ।।८८। आश्चर्य है कि तीन ज्ञानरूप नेत्रोंका धारक और आत्मज्ञ भी मैं मुढ़के समान संयमके बिना इतने काल तक वृथा गृहाश्रम में रह रहा हूँ ।।८।। इस संसारमें तीन ज्ञानकी प्राप्तिसे क्या साध्य है जबतक कि कर्मादिसे अपने स्वरूपको पृथक करके मुक्ति-लक्ष्मीका मुख-कमल नहीं देखा जाये ॥९०।। ज्ञान पानेका सत्फल उन्हीं पुरुषोंको है जो कि निर्मल तपका आचरण करते हैं। दूसरोंका ज्ञानाभ्यासादि-विषयक क्लेश निष्फल है ॥९१।। जो नेत्र धारण करके भी कूपमें पड़े, उसके नेत्र निरर्थक हैं। उसी प्रकार जो ज्ञानी मोहरूप कूपमें पड़े, तो उसका ज्ञान पाना वृथा है ।।१२।। जो पाप अज्ञानसे किया जाता है वह ज्ञानसे छूट जाता है। किन्तु ज्ञानसे (जान करके) किया गया पाप संसारमें किसके द्वारा छूट सकेगा? किसीके द्वारा भी नहीं छूट सकेगा ॥९३॥ ऐसा समझकर ज्ञानशालियोंको प्राणोंके जानेपर भी मोह-जनित निन्द्य कार्यों के द्वारा कभी कोई पाप कार्य नहीं करना चाहिए ।।२४।। क्योंकि मोहसे ही दुर्धर राग-द्वेष होते हैं, उनसे पुनः अतिघोर पाप होता है तथा पापसे दुर्गतिमें चिरकाल तक परिभ्रमण करना पड़ता है और उससे सुख-विमुक्त प्राणी पराधीन होकर वचनोंके अगोचर अति भयानक दुःखोंको पाते हैं ॥९५-९६।। ऐसा समझकर ज्ञानी जनोंको पहले मोहरूपी शत्रु स्फुरायमान वैराग्यरूप खड्गसे मार देना चाहिए, क्योंकि वह दुष्ट समस्त अनर्थोंका करनेवाला है. ॥९७।। अहो, वह मोहशत्रु गृहस्थोंके द्वारा कभी नहीं मारा जा सकता है, इसलिए पापकारक यह घरका बन्धन दूरसे ही छोड़ देना चाहिए ॥९८।। यह गृह-बन्धन बालपनमें और उन्मत्त यौवन अवस्था में सर्व अनर्थोका करनेवाला है, अतः धीर-वीर बुद्धिमानोंको मुक्ति-प्राप्तिके लिए उसका त्याग कर ही देना चाहिए ।।१९।। वे ही पुरुष जगत्में पूज्य हैं, और वे ही महाधैर्यशाली हैं, जो कि यौवन अवस्थामें ही अति दुर्जन कामशत्रुका नाश करते हैं ॥१००॥ क्योंकि यौवनरूप भूपके द्वारा प्रेरित हुए पंचेन्द्रियरूपी चोर संसारमें परम विकारको प्राप्त होते हैं ॥१०१॥ यौवनरूपी राजाके मन्द पड़नेपर अपने आश्रयके अभावसे वृद्धावस्थारूपी पाशके द्वारा वेष्टित होकर वे इन्द्रिय-चोर भी For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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