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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०.८७ ] दशमोऽधिकारः इत्याद्यैर्लक्षणैर्दिव्यैरष्टोत्तरशतप्रमैः । व्यञ्जनैः सकलैः सारैः परैर्नवशतान्तिकैः ॥ ७३ ॥ विचित्राभरणैः स्रग्भिर्निसर्गसुन्दरं विभोः । दिव्यमौदारिकं देहं बभौ व्यक्तोपमं भुवि ॥७४॥ किमत्र बहुनोक्तेन किचिलक्षणं शुभम् । रूपं संपत्प्रियं वाक्यं विवेकादिगुणव्रजम् ॥ ७५ ॥ जगत्त्रयेऽपि तत्सर्वं तीर्थकृत्पुण्यपाकतः । बभूव स्वयमेवान्यद्वा नेकशर्मकृत्प्रभोः ॥ ७६ ॥ इत्याद्यन्यतरै रम्यैर्गुणातिशय निर्मलैः । भूषितः सेव्यमानोऽसौ नृखेचरसुराधिपैः ॥७७॥ त्रिशुद्ध्या पालयन् गेहिव्रतानि धर्मसिद्धये | अविक्रमादृते नित्यं शुभध्यानानि चिन्तयन् ॥ ७८ ॥ कुमारलीलया दिव्यान् नृपशक्रार्पितान्मुदा । भुञ्जानो महतो भोगान् स्वपुण्यजनितान् शुभान् ॥ ७९ ॥ त्रिंशद्वर्षाणि पूर्णानि कुमारशर्मणानयत् । मन्दरागो जगन्नाथः क्षणत्रत्सम्मतिर्महान् ॥८०॥ अथान्येद्युर्महावीरः काललब्ध्या प्रपेरितः । चारित्राचरणादीनां क्षयोपशमतः स्वयम् ॥८१॥ प्राक् परिभ्रमणं स्वस्य विचिन्त्य भवकोटिभिः । उत्कृष्टं प्राप बैराग्यं विश्वभोगाङ्गवस्तुषु ॥८२॥ ततोऽस्य धीमतश्चित्ते वितर्क इत्यभूत्तराम् । रत्रत्रयतपः कर्ता मोहारातिक्षयंकरः ॥ ८३ ॥ अहो वृथा गतान्यत्र ममेयन्ति दिनानि च । मुग्धस्येव विना वृत्तं दुर्लभानि जगत्त्रये ॥ ८४ ॥ प्राक्तना वृषभाया ये तेषामायुः सुपुष्कलम् । सर्वत्र कर्तुमायाति न चास्मत्सदृशां क्वचित् ॥ ८५ ॥ नेमिनाथादयो धन्या विदित्वा स्वस्य जीवितम् । स्वल्पं बाल्येऽप्यगुर्धीराः शीघ्रं मुक्त्यै तपोवनम् ॥८६ अतोऽत्यल्पायुषां नैवात्रका कालकला क्वचित् । संयमेन विना नेतुं न योग्या हितकाङ्क्षिणाम् ॥८७॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९९ एक सौ आठ लक्षणोंसे और नौ सौ उत्तम व्यंजनोंसे, तथा शरीरपर धारण किये गये अनेक प्रकारके आभूषणोंसे और मालाओंसे स्वभावतः सुन्दर भगवान्‌का दिव्य औदारिक शरीर अत्यन्त शोभायुक्त था, जिसकी संसारमें कोई उपमा नहीं थी । ६६ - ७४ ।। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है ? इस जगत्त्रयमें जो कुछ भी शुभ लक्षण, रूप, सम्पदा, प्रियवचन, विवेकादि गुणोंका समूह है, वह सब तीर्थंकर प्रकृतिके पुण्य- परिपाकसे वीरप्रभुको स्वयमेव ही सुख के साधन प्राप्त हुए थे ।। ७५-७६ ।। इत्यादि अन्य अनेक रमणीय निर्मल गुणातियों से भूषित और नरेन्द्र, विद्याधर एवं देवेन्द्रोंसे सेवित वीरप्रभुने धर्म की सिद्धिके लिए मन-वचन-कायकी शुद्धि द्वारा श्रावकके व्रतोंको नित्य अतिचारोंके बिना पालन करते, शुभ ध्यानोंका चिन्तन करते, अपने पुण्यसे उपार्जित एवं मनुष्यों और इन्द्रोंसे समर्पित दिव्य शुभ महान् भोगोंको भोगते हुए कुमारकालीन लीलाके साथ कुमारकालके तीस वर्ष एक क्षण के समान पूर्ण किये। इस अवस्था में वे जगन्नाथ सन्मतिदेव परम मन्दरागी रहे | अर्थात् उनके हृदय में कभी काम-राग जागृत नहीं हुआ, किन्तु सांसारिक विषयोंसे उदासीन ही रहे ।।७७-८०।। For Private And Personal Use Only अथानन्तर काललब्धि से प्रेरित महावीर प्रभु किसी दिन चारित्रावरणीय कर्मोंके क्षयोपशमसे स्वयं ही अपने कोटिभवोंके पूर्व परिभ्रमणका चिन्तवन करके संसार, शरीर और भोगके कारणभूत द्रव्यों में उत्कृष्ट वैराग्यको प्राप्त हुए । ८१-८२।। तब उन महाबुद्धिशाली प्रभुके चित्तमें रत्नत्रय धर्म और तपश्चरणका करनेवाला, तथा मोहशत्रुका नाशक ऐसा बितर्क उत्पन्न हुआ ||८३|| अहो, तीन जगत् में दुर्लभ मेरे इतने दिन चारित्रके बिना मूढ़ पुरुषके समान वृथा ही चले गये ||८४|| पूर्वकालवर्ती जो वृषभादि तीर्थंकर थे, उनका आयुष्य बहुत था, इसलिए वे सांसारिक सर्व कार्य कर सके थे । अब अल्प आयुवाले हमारे जैसोंको सर्व कार्य करना कभी उचित नहीं है || ८५ || नेमिनाथ आदि धीर-वीर तीर्थंकर धन्य हैं कि जो अपना स्वल्प जीवन जानकर बालकालमें ही शीघ्र मुक्ति-प्राप्तिके लिए तपोवनको चले गये ॥ ८६ ॥ इसलिए इस संसार में हितको चाहनेवाले अल्पायुके धारक पुरुषोंको संयम के बिना कालकी
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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