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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९.१३१] नवमोऽधिकारः कृतपुष्पाञ्जलेरस्य ताण्डवारम्भसंभ्रमे । पुष्पवर्ष मुदामुञ्चन् देवास्तद्भक्तिवर्तिनः ॥११८।। समं तद्योग्यवाद्यानि कोटिशो दध्वनुस्तदा । आरेणुमधुरं वीणाः कलवंशा विसस्वनः ॥११॥ फलं गायन्ति किनार्य ऊर्जितं गीतसंचयम् । रचितं श्रीजिनेन्द्राणां गुणग्रामैः शुभप्रदम् ॥२०॥ प्रयुज्यासौ महच्छुद्धं पूर्वरङ्गमनुक्रमात् । करणरङ्गहारैश्च विकृत्य पुनर्जितान् ॥१२॥ सहस्रप्रमितान् बाहुन् मणिनेपथ्यभषितान् । ननाट ताण्डवं दिन्यं दर्शयन् रसमद्भुतम् ।।१२२॥ नृपादीनां सुखं कुर्वन् विक्रियद्वर्याघहानये । विचिन्नै रेचकैः पादकटीकण्ठकराश्रितैः ।।१२३।। तस्मिन् बाहुसहस्राक्ये प्रनृत्यत्यमरेशिनि । पृथ्वी तत्क्रमविन्यासैः स्फुटन्तीव तदाचलत् ॥१२४॥ विक्षिप्तकरविक्षेपस्तारकाः परितो भ्रमन् । कल्पद्रम इवानी चलदंशुकभूषणः ॥१२॥ एकरूपः क्षणादिव्यो बहुरूपोऽपरः क्षणात् । क्षणात्सूक्ष्मतरः कायः क्षणाद् ब्यापो महोन्नतः ॥२६॥ क्षणापाच क्षणाद्दूरे क्षणाद् व्योम्नि क्षणाद्भुवि । क्षणाद् द्विकरयुक्ताङ्गः क्षणाद् बहकराङ्कितः ॥१२॥ इति तन्वन् मुदात्मीयं सामर्थ्य विक्रियोद्भवम् । इन्द्रजालमिवादीन्द्रोऽदर्शयन्नाटकं तदा ॥१२८॥ पुनरप्सरसो नेटुरङ्गहारैः सचारिभिः । उरिक्षप्य भ्रलतां शक्रभुजराशिषु सस्मिताः ॥१२९|| वर्धमानलयः काश्चिदन्यास्ताण्डवलास्यकैः । ननृतुर्दैवनर्तक्यश्चित्ररभिनयः परैः ॥१३॥ काश्चिदेरावती पिण्डीमैन्द्री बद्ध्वा सुराङ्गनाः । अनृत्यंश्च प्रवेशनिष्क्रमैर्दिव्यैनियन्त्रितैः ॥१३॥ ही रहा हो ॥११७।। पुष्पांजलि बिखेरकर ताण्डवनृत्य करते हुए इन्द्रके ऊपर उसकी भक्ति करनेवाले देवोंने हर्षित होकर पुष्पोंकी वर्षा की ।।११८॥ उस समय ताण्डव नृत्यके योग्य करोड़ों बाजे बज रहे थे, वीणाओंने मधुर झंकार किया और सुरीली आवाजवाली अनेक बाँसुरियाँ बज रही थीं ॥११९।। किन्नरी देवियाँ श्री जिनेन्द्र देवके गुणसमूहसे युक्त उत्तम कल्याण-कारक सुन्दर गीतोंको गा रही थीं ॥१२०।। इस प्रकार अनुक्रमसे महान् पवित्र पूर्व रंग करके उस इन्द्र ने मणिमयी आभूषणोंसे भूषित एक हजार उत्कृष्ट भुजाएँ बनाकर, हस्तांगुलि-संचालन और अंग-विक्षेपोंके द्वारा अद्भुत रसको दिखलाते हुए दिव्य ताण्डव नृत्य किया ॥१२१-१२२।। राजादि सभी दर्शकोंको सुख उत्पन्न करते हुए, अपने पापोंके विनाशके लिए विक्रिया ऋद्धिसे पाद, कमर, कण्ठ और हाथोंसे अनेक प्रकारके अंग-संचालन द्वारा सहस्र भुजावाले उस सौधर्मेन्द्र के नृत्य करते समय उसके पाद विन्यासोंसे पृथ्वी फूटती हुई-सी चलायमान प्रतीत हो रही थी ॥१२३-१२४।। चंचल वस्त्र और आभूषणवाला वह इन्द्र किये गये करविक्षेपोंके द्वारा ताराओंके चारों ओर घूमता हुआ कल्पवृक्षके समान नृत्य कर रहा था ॥१२५।। नृत्य करते हुए वह इन्द्र क्षणभरमें एक रूप और क्षण-भरमें दिव्य अनेक रूपवाला हो जाता था । क्षण-भरमें अत्यन्त सूक्ष्म शरीरवाला और क्षण-भरमें महाउन्नत सर्वव्यापक देहवाला हो जाता था ॥१२३॥ क्षण-भरमें समीप आ जाता और झण-भरमें दूर चला ज क्षण-भरमें आकाशमें और क्षण-भरमें भूमि पर आ जाता था। क्षण-भरमें दो हाथवाला हो जाता और क्षण-भरमें अनेक हाथोंवाला हो जाता था ।।१२७।। इस प्रकार अत्यन्त हर्षसे विक्रिया-जनित अपनी सामर्थ्यको प्रकट करते हुए इन्द्रने इन्द्रजालके समान उस समय आनन्द नाटक दिखाया ॥१२८॥ तत्पश्चात् इन्द्रकी भुजाओंपर खड़ी होकर मुसकराते हुए अप्सराओंने अपनी भ्रूलताओंको मटकाते और करविक्षेप करते हुए नृत्य करना प्रारम्भ किया ।।१२९॥ कितनी ही देवियाँ वर्धमान लयके साथ, कितनी ही ताण्डव नृत्यके साथ और कितनी ही अनेक प्रकारके अभिनयोंके साथ नाचने लगीं ॥१३०।। कितनी ही देवियाँ ऐरावत हाथीका और कितनी ही इन्द्रका रूप धारण कर दिव्य नियन्त्रित प्रवेश और निष्क्रमणके द्वारा नृत्य करने लगीं ॥१३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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