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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री वीरवर्धमानचरिते [ ९.१०४ जन्माभिषेकजां सर्वां वार्तां श्रुत्वा सविस्मयौ । प्रमोदस्य परां कोटिं प्रापतुस्तौ महोदयौ ॥१०४॥ तौ भूयोऽनुमतिं लब्ध्वा शक्रस्य बन्धुभिः समम् । चक्रतुः स्वसुतस्येति जातकर्म महोत्सवम् ॥ १०५ ॥ तस्यादौ श्रीजिनागारे जिनाचणां महामहम् । नृपाद्याश्चक्रिरे भूत्या सर्वाभ्युदयसाधकम् ॥१०६॥ ततः स्वजनभृत्येभ्यो ददौ दानान्यनेकशः । यथायोग्यं नृपो दीनानाथवन्दिभ्य एव च ॥ १०७ ॥ तदा तोरणविन्यासैः केतुपङ्क्तिभिरूर्जितैः । गीतैर्नृत्यैश्च वादित्रैर्महोत्सवशतैः परैः ॥ १०८ ॥ तत्पुरं स्वःपुरं वाभात्स्वर्धामैव नृपालयम् । प्रमोदनिर्भराः सर्वे बभूवुः स्वजनाः प्रजाः ॥ १०९ ॥ प्रमोदनिर्मरान् विश्वांस्तद्बन्धू स्तन्महोत्सवे । पौरांश्च वीक्ष्य देवेशः स्वं प्रमोदं प्रकाशयन् ॥ ११० ॥ आनन्दनाटकं दिव्यं त्रिवर्गफलसाधनम् । गुरोराराधनायामा देवीभिः कर्तुमुद्ययौ ॥१११॥ नृत्यारम्भेऽस्य सद्गीतगानं ( चैव) मनोहरम् । कतु प्रारेभिरे गन्धर्वास्तद्वाद्यादिभिः समम् ॥ ११२ ॥ सिद्धार्थाद्या नृपाधीशाः सकलत्राश्च सोत्सवाः । तं द्रष्टुं प्रेक्षकास्तत्र पुत्रोत्सङ्गा उपाविशन् ॥१३३॥ आदौ समवतारं स कृत्वा नेत्रसुखावहम् | जन्माभिषेकसंबद्धं प्रायुङ्क्तैनं शुभप्रदम् ||११४ || पुनर्ननाट शक्रोऽन्यन्नाटकं बहुरूपकम् । अधिकृत्य जिनेन्द्रस्यावतारान् प्राग्भवोद्भवान् ॥१५॥ प्रकुर्वन्नूर्जितं नृत्यं सदीप्तिमराङ्कितम् । कल्पशाखीव रेजेऽसौ दिव्याभरणदामभिः || ३१६ ॥ सलयैः क्रमविन्यासैः परितो रङ्गमण्डलम् । परिक्रामन् बभौ शक्रो मिमान इव भूतलम् ॥११७॥ हाथमें भगवान्को समर्पण कर मेरुपर हुई जन्माभिषेककी सुन्दर वार्ताको हर्ष के साथ कहता हुआ कुछ क्षण खड़ा रहा || १०३ || जन्माभिषेककी सारी बात सुनकर आश्चर्य युक्त हो वे दोनों भाग्यशाली माता-पिता अत्यन्त प्रमोदको प्राप्त हुए || १०४ || तत्पश्चात् माता-पिताने सौधर्मेन्द्रकी अनुमति लेकर बन्धुजनोंके साथ अपने पुत्रका जन्ममहोत्सव किया || १०५ || सबसे प्रथम उन्होंने और राजाओंने श्रीजिनालय में जाकर सर्व कल्याणकी साधक श्री जिनप्रतिमाओंकी महापूजा भारी विभूति के साथ की ||१०६ || उसके बाद सिद्धार्थराजाने अपने परिजनोंको, नौकरोंको, दीन, अनाथ और बन्दीजनों को यथायोग्य अनेक प्रकारका दान दिया || १०७|| उस समय तोरण द्वारोंसे, वन्दनचारोंसे, ऊँची ध्वजापंक्तियोंसे, गीतोंसे, नृत्योंसे, बाजोंसे और सैकड़ों प्रकार के महोत्सवोंसे वह नगर स्वर्गपुर के समान और राज भवन स्वर्ग-धामके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था। सभी स्वजन और प्रजाजन अत्यन्त प्रमुदित हुए || १०८ - २०१९ | उस जन्ममहोत्सव के द्वारा आनन्दसे परिपूर्ण समस्त बन्धुजनोंको और पुरवासियोंको देखकर सौधर्मेन्द्र अपना प्रमोद प्रकाशित कर श्रीजगद्-गुरुकी आराधना करनेको अपनी देवियोंके साथ धर्म अर्थ कामरूप त्रिवर्ग फलका साधक दिव्य आनन्द नाटक करनेके लिए उद्यत हुआ ||११०-१११॥ नृत्यके प्रारम्भ में गन्धर्व देवोंने अपने-अपने वीणादि बाजोंके साथ मनोहर सद्-गीत-गान करना प्रारम्भ किया ||११२|| उस समय श्री महावीर पुत्रको गोद में बैठाये हुए सिद्धार्थ राजा तथा अपनी-अपनी रानियोंके अन्य राजा लोग और उल्लासको प्राप्त अन्य दर्शकगण उस आनन्द नाटकको देखने के लिए यथास्थान बैठ गये ॥११३॥ | उस सौधर्मेन्द्रने सबसे पहले नयनोंको आनन्दित करनेवाला, कल्याणमयी जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्यका अवतार किया। अर्थात् सुमेरुपर किये गये जन्म कल्याणकका दृश्य दिखाया | | ११४ || पुनः जिनेन्द्रदेव के पूर्वभव-सम्बन्धी अवतारोंका अधिकार लेकर इन्द्र बहुरूपक अन्य नाटक किया ||११५ || उल्लासयुक्त, दीप्ति-भार से परिपूर्णउत्कृष्ट नाटकको करता हुआ वह इन्द्र उस समय दिव्य आभूषण और मालाओंके द्वारा कल्पवृक्षके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था ॥ ११६ ॥ लय-युक्त पादविक्षेपोंके द्वारा, रंगभूमिकी चारों ओर से प्रदक्षिणा करता हुआ वह इन्द्र ऐसा मालूम होता था मानो इस भूतलको नाप For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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