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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय श्राश्रय ग्रहण कर विचरने लगे । आर्य सुधर्मा स्वामी के पधारने पर नगर की श्रद्धालु जनता उनके दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश सुनने के लिये आई और धर्मोपदेश सुनकर उसे हृदय में धारण कर चली गई । "अज्जसुहम्मरस अन्तेवासी अज्ज-जम्बू णाम अणगारे सत्तुस्से, इस पाठ से आर्य सुधर्मा स्वामी के वर्णन के अनन्तर अब सूत्र-कार उनके प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहते हैं - जम्बूस्वामी का शारीरिक मान* सात हाथ का था। सूत्रकार ने इन के विषय में अधिक कुछ न लिखते हुए केवल गौतम स्वामी के जीवन के समान इनके जीवन को बतला कर इनकी आदर्श साधुचर्या का संक्षेप में परिचय दे दिया है। श्री गौतम स्वामी के साधुजीवन की शारीरिक मानसिक और आत्म-सम्बन्धी विभूति का वर्णन श्री भवगती सत्र [श. १.उ०१, ] में किया गया है । “जायसड्ढे जाव जेणेव" इस पाठ में उल्लिखित "जाव" शब्द से निम्नलिखित इतना और जान लेने की सूचना है, जैसा कि...जायसंसर, जाय कोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, संजायसड्ढे, संजायसंसर, संजायकोउहल्ले, समुत्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उठाए, उट्टेइ, उठाए, उठेत्ता...... । छाया- जातसंशयः, जातकुतूहलः, उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्न • जैन शास्त्रों में नापने के परिमाणों का अंगुलों द्वारा बहुत स्पष्ट वर्णन मिलता है । अगुल तीन प्रकार के होते हैं -(१) प्रमाणांगुल (२) आत्मांगुल (३) श्रोर उत्सेधांगुल । जो वस्तु शाश्वत हैजिस का नाश नहीं होता, वह प्रमाणांगुल से नापी जाती है, ऐसी वस्तु का जहां परिमाण कहा गया हो, वहां प्रमाणांगुल से ही समझना चाहिए । अात्मांगुल से तत्तत्कालीन नगर आदि का परिमाण बतलाया जाता है । इस पांचवें आरे को साढे दस हजार वर्ष बीतने पर उस समय के जो अंगुल हागे उन्हें उत्सेधांगुल कहते हैं । जम्बू स्वामी का शरीर उत्सेधांगुल से सात हाथ का था । इस प्रकार यद्यपि जम्बू स्वामी के हाथ से उन का शरीर साढे तीन हाथ का ही था परन्तु पांचवें आरे के साढ़े दस हजार वर्ष बीत जाने पर यह साढ़े तीन हाथ ही सात हाथ के बराबर होंगे, इसी बात को दृष्टि में रख कर ही जम्बूस्वामी का शरीर सात हाथ लम्बा बतलाया गया है । (१) भगवती सत्र का वह स्थल दर्शनीय एवं मननीय होने से पाठकों के अवलोकनार्थ यहां पर उद्धृत किया जाता है - _ "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंते-वासी इदंभूती नाम अणगारे गोयमसगोरो णं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वाजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिग्यसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवम्सी घोरबंभचेरवासी उच्छृढ़सरीरे संखित्तविरलतेउलेसे चोद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणरस भगवो महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजारणू अहोसिरे ज्ञाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ" ॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिनामाऽनगारः गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः सम चतुरस्रसंस्थानसंस्थितः बज्रर्षभनाराचसंहननः कनकपुलकनिकपपद्मगौरः उग्रतपाः दीप्ततपाः तप्ततपाः उदारः घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्य वासी उच्छृढ़शरीरः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः सर्वाक्षरसन्निपाती श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूर. सामन्ते ऊर्ध्वजानुः अधःशिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । अर्थात् उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान अन्तेवासी-शिष्य For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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