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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ह "चरणाणोवगर- चतुर्ज्ञानोपगतः " यह विशेषण, परम पूज्य श्रार्य सुधर्मा स्वामी को चतुर्विध ज्ञान के धारक सूचित करता है, अर्थात् उन में मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यव ये चारों ज्ञान विद्यमान थे । इस से सूत्रकार को उन में ज्ञान - सम्पत्ति का वैशिष्ट्य बोधित करना अभिप्रेत है ? जैनागमों ਜੇ ज्ञान पांव प्रकार का बतलाया गया जैसे कि . (१) मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्यदेश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । इस का दूसरा नाम अभिनिवोधिक ज्ञान भी है । श्रुतज्ञान - वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला; इन्द्रिय मन. कारण ज्ञान श्रुततान है अथवा -- मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ को पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान श्रुत ज्ञान कहलाता है । (३) अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के विना मर्यादा को लिये हुए रूपी - द्रव्य का बोध कराने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है । (४) मनःपर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के विना संज्ञी जीवों के मनोगतभावों को जिससे जाना जाय वह मनःपर्यव ज्ञान है। मर्यादा को लिये हुए (५) केवलज्ञान -मति आदि ज्ञान को अपेक्षा बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थां का युगपत् हस्तामलक के समान बोध जिस से होता है वह केवलज्ञान है । इन पूर्वोक्त पंचविध ज्ञानों में से श्रार्य सुधर्मा स्वामी ने प्रथम के चारों ज्ञानों को प्राप्त किया हुआ था । 64 . चरमाणे जाव जेणेव " इस पाठ में “जाव यावत्" पद से “गामाशुगामं दूइजमाणे सुहंसुहेण विहरमाणे " [ ग्रामानुग्रामं द्रवन् सुखसुखेन विहरन्] अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी होने के कारण ग्राम और अनुग्राम [* विवक्षित ग्राम के अनन्तर का ग्राम ] में चलते हुए साधुवृति के अनुसार सुखपूर्वक विहरणशील - यह जानना । "हापडिगं जाव विहरइ" इस पाठ में उल्लेख किये गये “जाब - यावत् " शब्द से - " उग्गहं उग्गिराइ अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे " [ अवग्रहं उद्गृहाति यथा- प्रतिरूपमवग्रहमुद्गृह्य संयमेन तसा आत्मानं भावयन् ] अर्थात् साधु वृत्ति के अनुकूल अवग्रह - श्राश्रय उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा श्रात्मा को भावित करते हुए - भावनायुक्त करते हुए विचरण करने लगेयह ग्रहण करना । तब इस समय आगमपाठ का संकलित अर्थ यह हुआ कि - उस काल तथा उस समय में जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न और बल, रूपादिसम्पन्न, चतुर्दश पूर्वों के ज्ञाता चतुर्विध ज्ञान के धारक तथा पांचसौ साधुओं के साथ क्रमशः विहार करते हुए पूर्णभद्र नामक चैत्य में साधु- वृत्ति के अनुकूल अवग्रह (१) क - नाणं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा - आभिणिवोहियणाणं, सुयणाणं, श्रहिणाां, मरणपज्जवणा केवलणाणं । छायः – ज्ञान पंचविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा— ग्राभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मन. - पर्यवज्ञानम् केवलज्ञानम् । [ अनुयोग-द्वार सूत्र ] ख -मति श्रुतावधि मन -पर्याय- केवलानि ज्ञानम्,, [ तत्त्वार्थ सू० १ । ९ । ] * ग्रामश्चानुग्रामश्च ग्रामानुग्रामः विवक्षित - ग्रामानन्तरग्रामः तं द्रवन् गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लंघयन्नित्यर्थः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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