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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, फिर यहां पर पूत्रकार ने इन दोनों शब्दों का पृथक् २ प्रयोग क्यों किया है ? इस का समाधान आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में इस प्रकार है “अथ काल-समयोः को विशेषः ? उच्यते, सामान्या वर्तमानावसर्पिणी चतुर्थारक-लक्षणः कालः, विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समयः" अर्थात् सूत्रकार को काल शब्द से सामान्य वर्तमान अवसर्पिणी काल - भेद का चतुर्थ श्रारक अभिप्रेत है. और समय शब्द से इसो अवसर्पिणी कालीन चतुर्थ श्रारक का एक देश अभिमत है। अर्थात् यहां पर काल शब्द अवसर्पिणो काल के चौथे आरे का बोधक है और समय शब्द से चोथे श्रारे के उस भाग का ग्रहण करना है जब यह कथा कही जा रही है । ___"होत्था' - यहां पर सूत्रकार ने होत्या-अभूत् यह अतीत काल का निर्देश किया है । इस स्थान में शंका होती है कि चम्पा नाम को नगरी तो अाज भी विद्यमान है, फिर यहां अतीत काल का प्रयोग क्यों ? इसका उत्तर स्पष्ट है - यह सत्य है कि चम्पा नगरी' आज भी है तथापि अवसर्पिणी काल के स्वभाव से पदार्थों में गुणों की हानि होने के कारण वर्णन ग्रन्य (अोपपातिक सूत्र) में वर्णन को हुई चम्पानगरी श्री सुधर्मा स्वामा जो के समय में जैसे थी वैसो न रहने से यहां पर अतोत का प्रयोग किया गया है जो उपयुक्त ही है। सारांश यह है कि चम्पा नगरीर थी, यह भूत कालीन प्रयोग असंगत नहीं है । __वराणो -वर्णकः' इससे सूत्रकार को जो चम्पानगरी का वर्णन ग्रन्थ अभिप्रेत है वह औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिये । सूत्र-कार ने मूल पाठ में “वरण ओ" पद का दोबार ग्रहण किया है । उस में प्रथम का चम्पानगरो से सम्बन्धित है और दूसरा पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन से सम्बन्ध रखता है । पूणभद्रचैत्य का वर्णन श्रौपपातिक सूत्र में विस्तार पूर्वक किया गया है जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासा वहां से पूर्ण करनी चाहिये । किसी किसी प्रति में “वरणो " यह द्वितीय पद नहीं है । अर्थात् कहीं कहीं “पुरणभद्दे चेइए वरण प्रो” इस पाठ के अन्तर्गत जो “वरणो ' पद है वह नहीं पाया जाता, केवल “पुराणभद्दे चेहरा" इतना उल्लेख देखने में आता है। अर्थात् - तत्त्व के ज्ञाता महीना वर्ष श्रादि रूप से जिसका का कलन (निश्चय) करते हैं उसे काल कहते हैं अथवा पखवाड़े का है महीने का है इस प्रकार के कलन ( संख्या-गिनती ) को काल कहते हैं अथवा कलाओं – समयों के समूह को कान कहते हैं परन्तु भगवान् ने निश्चय कान का वर्तना रूप लक्षण कहा है। अर्थात् जो द्रव्य को पर्यायो को नई अथवा पुरानो करता है वही निश्चय काल है। (१) नगरी शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है नगरी न गच्छन्तीति नगाः-वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचलत्वादुन्नतत्वाच्च प्रालादादयोऽपि ते सन्ति यस्यां सा. इति निरुक्तिः । “नकरो” इति छायापक्षे तु न विद्यते कर: गोमहिप्यादीनामष्टादविधो राज.. ग्राह्यो भागः (महसूल) यत्र सेत्यर्थः । (२) यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणी-कालस्वभावेन हीयमानत्वाद् वस्तुस्वभावानां वर्णक - ग्रन्योक्तस्वरूपा सधर्म-स्वामिकाले नास्तीति कृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः (वृत्तिकारः) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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